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आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत अध्याय के अन्तर्गत पांचवी गाथा में सामायिक-चारित्र के स्वरूप का ही विवेचन कर रहे हैं। छेदोपस्थापनीय आदि भेद सामायिक के ही विकास की अवस्था से हैं, इसलिए इस प्रकरण में सामायिक का ही विवेचन किया गया है, छेदोपस्थापनीय आदि चारित्रों का नहीं। सामायिक का स्वरूप
आचार्य हरिभद्र के अनुसार, तृण एवं स्वर्ण में, शत्रु और मित्र में, अर्थात् चाहे निर्जीव पदार्थ हों, चाहे सजीव पदार्थ हों- सबमें एक समान भाव अर्थात् समभाव रखना ही सामायिक है। राग-द्वेष से रहित और उचित प्रवृत्ति से युक्त मन का होना ही उत्तम सामायिक है। प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री के अनुसार, जिसमें सम रागद्वेष रहित भावों की आय हो, अर्थात् लाभ हो, उसे सामायिक कहते हैं।'
केवलमुनि के अनुसार, सावद्य कर्मों का त्याग कर धर्मध्यान करना सामायिक है।
मुनि भद्रगुप्तसूरि के अनुसार, राग-द्वेष कम होना, उसका नाम है- सम और विशुद्धि का लाभ होना, उसका नाम है- आय, जिनसे मिलकर बना है- सामायिक।
अनुयोगद्वारसूत्र के अनुसार, बस-स्थावर आदि प्राणियों के प्रति समभाव धारण करना सामायिक है।
आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत प्रकरण की छठवीं गाथा के द्वारा कहा है कि सामायिक ज्ञान और दर्शन के अभाव में नहीं होगी
' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/5 - पृ. – 184
द्वादशपर्वव्याख्यान - प्र. सज्जनश्री - पृ. - 112 - तत्त्वार्थ-सूत्र – केवलमुनि - पृ. - 323
प्रशमरति भाग-2 - भद्रगुप्तसूरि वरजी – पृ. - 76 4 अनुयोगद्वारसूत्र – म. महावीर- 599/128 - पृ. - 454
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/6 -पृ. - 184 • पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/7 – पृ. - 184
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