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इस प्रकार आगम में 'मुण्डापयितुम' इत्यादि जो कहा गया है, उससे यह सिद्ध होता है कि पृच्छा आदि से ज्ञात विशुद्ध जीव को ही दीक्षा देना चाहिए, अर्थात् जो परीक्षा में अच्छे परिणाम लाया है, वही दीक्षा के योग्य है। आचार्य हरिभद्र का कथन है कि ऐसी स्थिति में प्रतिमाधारी को ही दीक्षा देना अधिक उचित है। इस तथ्य को आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत प्रकरण में निम्न गाथा के रूप में निर्देशित करते हैं
जुत्तो पुण एस कमो ओहेणं संपयं विसेसेणं। जम्मा असुहो कालो दुरणुचरो संजमो एत्थ ।।'
यद्यपि प्रतिमा-पालन के बिना भी दीक्षा हो सकती है, फिर भी सामान्यतया पहले प्रतिमा का सेवन हो, फिर दीक्षा दी जाए- यही उचित है। आचार्य हरिभद्र ने साम्प्रत (वर्तमान-काल) की परिस्थिति का चित्रण करते हुए कहा है कि वर्तमान-काल में तो यह उचित है कि प्रतिमा सेवन करने के पश्चात् ही दीक्षा के योग्य दीक्षा दी जाए। वर्तमान का समय बड़ा विषम है, और वर्तमान में संयमपालन करना बड़ा दुष्कर है, अतः दीक्षार्थीयों को प्रतिमाओं का अभ्यास करवाना चाहिए।
____आचार्य हरिभद्र द्वारा पंचाशक-प्रकरण में उपासक प्रतिमाविधि के अन्तर्गत प्रतिमापूर्वक दीक्षा की योग्यता का जो कथन किया गया है, उसका अन्य दर्शनों ने भी समर्थन किया है।
तं तं तरेसुवि इमो आसमभेओ पसिद्धओ चेव । ता इय इह जइयव्वं भवविरहं इच्छमाणेहिं।।
अन्य दर्शनों में चार प्रकार के आश्रमों की व्यवस्था हैब्रह्मचर्य-आश्रम 2. गृहस्थ-आश्रम 3. वानप्रस्थ-आश्रम और 4. सन्यास-आश्रम ।
अन्य दर्शनों में इन आश्रमों की इन प्रतिमाओं के समान ही व्यवस्था की गई है। जैन-दर्शन में साधना के शिखर पर चढ़ने के लिए ग्यारह आश्रम हैं, जबकि अन्य दर्शनों में केवल चार ही आश्रम हैं। आश्रम-व्यवस्थ के अनुसार सौ वर्ष की आयु के अन्तर्गत प्रारम्भ के पच्चीस वर्ष की आयु तक साधक ब्रह्मचर्य की साधना से इन्द्रियों को
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| पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/49 - पृ. – 179 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/50 - पृ. - 180
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