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कारण प्रतिमा वहन किए बिना भी यदि कोई ज्ञानावरणीय आदि के क्षयोपशमरूप दीक्षा की योग्यता को जो प्राप्त कर लेता है, तो उसको भी प्रतिमाधारी की तरह दीक्षा दे सकते हैं, अर्थात् प्रतिमा धारण किए बिना भी दीक्षा के योग्य होने पर दीक्षा दे सकते हैं, इसलिए सूत्रों के ज्ञाता गीतार्थ को सदा प्रयत्नपूर्वक पृच्छादि में विशुद्ध जीव को दीक्षा देना चाहिए- ऐसा केवलियों द्वारा भाषित है।
पृच्छादि से तात्पर्य है कि गीतार्थ गुरु को प्रथम बार आए दीक्षार्थी से पूछना चाहिए कि कौन है ? कहाँ से आया है ? दीक्षा क्यों अगीकार करना चाहता है ?
यह सब पूछने पर यदि वह उचित उत्तर देता है, तो उसे प्रव्रज्या (दीक्षा) के स्वरूप को धर्म-कथानकों के माध्यम से समझाना चाहिए। प्रव्रज्या का स्वरूप समझाने के पश्चात्, वह दीक्षा के योग्य है या नहीं- इसकी परीक्षा छ: माह तक, अथवा उचित समय तक करना चाहिए। इस प्रकार पृच्छा, धर्म-कथन और परीक्षण से जो योग्य लगे, उसे दीक्षा देना चाहिए- ऐसा केवलियों द्वारा भाषित है।
आगमोपयोग से विशुद्ध भाव वाले गुरु के द्वारा प्रव्रज्या-काल में यदि दीक्षार्थी अयोग्य सिद्ध होता है, तो प्रव्रज्या की शेष क्रियाओं, यथा- मुंडन, छेदोपस्थापनीय, चारित्रप्रदान आदि का निषेध किया गया है।
इस सम्बन्ध में कल्पभाष्य में वर्णित प्रव्रज्यासूत्र का अभिप्राय निम्न है- मान लो यदि अनुपयोग, अर्थात् असावधानी से अयोग्य को दीक्षा दे दी गई हो और बाद में यह पता चले कि जिसे दीक्षा दी गई है, वह अयोग्य है, तो उसका मुंडन नहीं करना चाहिए। यदि आचार्य शिष्यलाभ के कारण मुंडन करते हैं, तो उन्हें जिनाज्ञाभंग का दोष लगता है। यदि मुंडन कर दिया हो, तो प्रतिलेखना आदि साध्वाचार नहीं सिखाना चाहिए, क्योंकि अयोग्य को सिखाने पर दोष लगता है। यदि वे साध्वाचार सिखा भी दिएं हैं, तो छेदोपस्थापनीय (बड़ी) दीक्षा नहीं देना चाहिए, क्योंकि उसे बड़ी दीक्षा देने से दोश लगता है। यदि बड़ी दीक्षा दे भी दी हो, तो उसके साथ मण्डली में बैठकर आहार नहीं करना चाहिए। यदि मण्डल में भोजन करने के पश्चात् भी यह पता चले कि जिसे दीक्षा दी गई है, वह अयोग्य है, तो उसे अपने साथ नहीं रखना चाहिए।
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