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वाले के अर्थ में 'सु-मण' विवक्षित है। जो धर्म-ध्यान, शुक्ल-ध्यानादि गुणों से परिपूर्ण मन वाला हो और जो सकषाय मन वाला न हो, वही वास्तव में समण है।
जो स्व और पर में समान भाव वाला हो, वह समण तथा जो मान-अपमान में समभावपूर्वक व्यवहार करे, वह समण है।
यहाँ समण शब्द की इस प्रकार व्याख्या करने का अर्थ यह है कि वास्तव में संयम के स्वामी, शुद्ध दशारूप सम्यक् परिणाम वाले तथा तप-संयम में रमण करने वाले को ही समणत्व प्राप्त होता है।
पू. सज्जनश्रीजी भगवान् सा. के अनुसार"तप-संयम रमणता, ये ही तो है श्रमणता।"
यहाँ शंका उत्पन्न हुई कि प्रतिमाधारी श्रावक ही दीक्षा के योग्य है, तो क्या प्रतिमा का पालन किए बिना कोई दीक्षा नहीं ले सकता है ? अर्थात् दीक्षा के योग्य नहीं है ?
प्रस्तुत शंका का समाधान करते हुए आचार्य हरिभद्र कह रहे हैंता कम्मखओवसमा जो एयपगार मंतरेणावि। जायति जहोइयगुणो तस्सवि एसा तहा णेया ।। एत्तोच्चिय पुच्छादिसु हंदि विसुद्धस्य सति पयत्तेणं । दायव्वा गीतेणं भणियमिणं सव्वदंसीहि ।। तह तम्मि-तम्मि जोए सुत्तुवओगपरिसुद्धभावेण। दरदिण्णाएऽवि जओ पडिसेहो वण्णिओ एत्थ ।। पव्वाविओ सियत्तिय मुंडावेउ मिच्चाइ जं भणियं । सव्वं च इमं सम्मं तप्परिणामेहवति पायं ।।
पूर्व में कहा गया है कि संसार से भयभीत, अथवा उदासीन रहने वाले तथा प्रशस्त परिणाम वाले व्यक्ति को दीक्षा दे सकते हैं। इसी प्रकार, कम आयु के
सज्जनभजनभारती - प्र. सज्जनश्री - पृ. - 74 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/45 से 48 – पृ. - 178
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