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योग्यता-परीक्षणपूर्वक ली हुई दीक्षा को ही परिपूर्ण दीक्षा कहा जाता है, क्योंकि परिपूर्ण दीक्षा में प्रतिलेखना आदि सामाचारी के अनुपालनरूप-चेष्टा आगमों के अनुसार होती है। विशिष्ट कारणों से अपवाद का सेवन करने वाले साधकों में भी सामान्यतया आगमानुसारी क्रिया देखी जाती है, किन्तु स्थूल-दृष्टि वाले जीवों को वह (अपवाद अवस्था वाली क्रिया) सामान्य अवस्था वाली क्रिया की तरह स्पष्ट दिखलाई नहीं देती है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत् उपासक-प्रतिमाविधि की निम्न गाथा में प्रतिपादन करते हुए कहा है कि योग्य व्यक्ति द्वारा गृहीत दीक्षा में आगमानुसार क्रिया होने में क्या कारण है
भवणिव्येयाउ जतो मोक्खे रागानु णाणपुव्वाओ। सुद्धासयस्स एसा ओहेणवि वण्णिया समए ।।
सम्यग्ज्ञान होने पर जिन कारणों से संसार से विरक्त होता है, उन्हीं कारणों से मोक्षमार्ग के प्रति रुचि उत्पन्न होती है, अतः शुद्ध परिणाम वाले श्रावक के लिए ही सम्यक् दीक्षा का स्वरूप शास्त्रों में वर्णित है।
आचार्य हरिभद्र ने यह भी स्पष्ट किया है कि शुद्ध परिणाम वाले को चारित्र की उपलब्धि किस प्रकार से होती है ? सिद्धान्त-ग्रन्थों में कहा गया है
तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ ण होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु।।
समण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- स + मण = समण। स अर्थात् सहित, मण अर्थात् मन, अर्थात् जो मन–सहित है, वह समण है।
समण - स- सम्यक, मण- मन, सम्यक् मन है जिसका, वह समण है।
यहाँ मन को सामान्य मन से नहीं लिया गया है। चूंकि मन तो सामान्य मनुष्य एवं तिर्यंच पंचेन्द्रिय आदि सभी में होता है, इसलिए यहाँ सम्यक् गुण-सम्पन्न मन
'पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/42 - पृ. 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/43 - पृ. पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/44 - पृ.
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