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________________ प्रतिमाओं की आराधना से अपनी आत्मा को भावित करके अन्त में व्यक्ति अपनी योग्यता का मूल्यांकन करे, यदि साधुत्व के परिपालन की योग्यता है, तो श्रमण-जीवन स्वीकार करे, अन्यथा गृहस्थ-जीवन में रहकर ही साधना करे। यहाँ यह प्रश्न उठाया गया है कि आत्मा को भावित करके दीक्षा क्यों लेना चाहिए ? जिसका समाधान आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की निम्न गाथाओं में किया है गहणं पव्वज्जाए जओ अजोगाण णियमतो ऽणत्थो। तो तुलिऊणऽप्पाणं धीरा एयं पवज्जति।। तुलणा इमेण विहिणा एतीए हंदि नियमतो णेया। णो देसविरइकंडयपत्तीएँ विणा जमे सत्ति।।' अयोग्य व्यक्तियों द्वारा दीक्षा स्वीकार करना सामान्यतया अनर्थप्रद है, क्योंकि अयोग्य व्यक्ति दीक्षा लेकर संयम के नियमों का उल्लंघन कर सकता है, और यह उल्लंघन जिनाज्ञा की अवहेलना होगी, जिससे जिन-सिद्धांत की उत्सूत्र-प्ररूपणा की सम्भावना भी बनी रहेगी, इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य अपनी योग्यता की समीक्षा करने के पश्चात् ही प्रव्रजित होते हैं, जिससे जिनाज्ञा का पालन भी सुचारु रूप से हो सके। प्रव्रज्या की योग्यता का परीक्षण प्रतिमागत आचरण से ही होता है, क्योंकि भावपूर्वक देशविरति अंगीकार किए बिना प्रव्रज्या नहीं होती। यदि कोई प्रव्रज्या ग्रहण भी कर ले, तो भी उससे सफलता प्राप्त होने की सम्भावना कम होती है। इस कारण, दीक्षा लेने के पूर्व अपने मन को समत्वभावों से पूर्णतया साध लेना चाहिए, जिससे संयम–मार्ग से विचलित होने की गुंजाईश ही न हो तथा जिनाज्ञा का पालन सम्यक् प्रकार से होता रहे। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की निम्न गाथा में कहा हैतीए य अविगलाए बज्झा चेट्ठा जहोदिया थाय । होसि णवरं विसेसा कत्थति लक्खिज्जए ण तहा।।' 375 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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