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दशाश्रुतस्कंध सूत्र में- पंचम प्रतिमा में उत्कृष्ट पांच मास की अवधि निर्धारित की है। इसी प्रकार, षष्ठम प्रतिमा में छ: मास, सप्तम में सात मास, अष्टम में आठ मास, नवम में नौ मास, दशम में दस मास तथा एकादश में ग्यारह मास की अवधि उत्कृष्ट से निर्धारित की है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में दशाश्रुतस्कंध-सूत्र के अनुसार ही पंचम प्रतिमा से एकादश प्रतिमा का काल निर्धारित किया है।
आचार्य अभयदेवसूरि ने उपासकदशांगटीका में एक से लेकर ग्यारह तक प्रतिमाओं की संख्या के अनुसार ही मास-क्रम की अवधारणा प्रस्तुत की है।
दिगम्बर-परम्परा में प्रतिमाओं का समय निर्धारण कहीं भी नहीं किया है, परन्तु ग्यारहवीं प्रतिमा के विवरण में यह अवश्य वर्णन किया है कि श्रावक इस प्रतिमा का पालन आजीवन करता है।
दोनों परम्पराओं का अध्ययन करने पर काल के विषय में विशेष अन्तर दृष्टिगोचर होता है।
___ श्वेताम्बर-परम्परा में दोनों ही साधक के अभ्यास के लिए काल का अवधारण किया गया है, परन्तु दिगम्बर-परम्परा में समय-निर्धारण का कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।
एक अन्तर यह भी दिखाई देता है कि श्वेताम्बर-परम्परा में प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक के लिए ग्यारह मास तक की अविध मान ली गई है, जबकि दिगम्बर-परम्परा में प्रतिमा को आजीवन के लिए ही ग्रहण किया जाता है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के उपासकप्रतिमाविधि के अन्तर्गत ग्यारह प्रतिमाओं का विवेचन करने के पश्चात् कहा है कि श्रावक ग्यारह प्रतिमाएँ पूर्ण होने पर आगे किस प्रकार की साधना करे। प्रस्तुत गाथा में इसे ही स्पष्ट किया है
भावेऊणऽत्ताणं उवेइ पव्वज्जमेव सोपच्छा। अहवा गिहत्थभावं उचियत्तं अप्पणो णाउं।।'
'पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/39 - पृ. - 176 - पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/40,41 - पृ. - 176
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