SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एवं मन को संयमित बनाकर तत्पश्चात् गृहस्थ - आश्रम में प्रवेश करता है, जहाँ संसार के भोगों में रहकर भी मन को संयमित रखता है तथा मात्र अपने कर्त्तव्य के निर्वाह के लिए सांसारिक-जीवन को जीता है। इस आश्रम की अवधि भी पच्चीस वर्ष की है । तत्पश्चात् वह वानप्रस्थ–आश्रम में प्रवेश करता हैं । यहाँ पर साधक संसारदशा में रहकर भी वनवासी की तरह अनासक्त-भाव से जीवनचर्या का निर्वाह करता है । इस आश्रम में भी पच्चीस वर्ष तक साधना कर मन को संन्यास के लिए साधने का प्रयास करता है। तत्पश्चात् शेष जीवन को व्यतीत करने के लिए संन्यास - आश्रम में प्रवेश कर लेता है, अर्थात् घर का त्याग कर बाहर वनों में, जंगलों में, मठों में, कुटीरों में, कहीं भी रहकर संन्यासी का जीवन जीता है। हर धर्म में मोक्ष के लिए साधना का मार्ग बताया गया है, इसलिए साधक यदि भव से विरह पाना चाहता है, तो उसे प्रतिमापूर्वक दीक्षा ग्रहण करने का प्रयत्न करना चाहिए । प्रस्तुत ग्यारह प्रतिमाओं के विवरणानुसार 66 माह पश्चात् संयम ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि संयम ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं, तो गृहस्थ-जीवन में ही संन्यासीवत् रहना चाहिए । श्रावक - प्रतिमाओं की प्रासंगिकता - मेरी दृष्टि में प्रतिमा - धारक साधक को सर्वप्रथम जिनेश्वर द्वारा भाषित जीवादि तत्त्वों के प्रति सम्यक् श्रद्धा होना चाहिए। तीव्रतम क्रोधादि कषायों से रहित हो सम्यग्दर्शन - प्राप्ति के साथ सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म के प्रति समर्पित होना चाहिए। उसके अनन्तर हृदय में प्रत्येक जीव के प्रति मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ-भाव होना चाहिए, क्योंकि मैत्री एवं करुणा के भाव ही आत्मा के चरित्र को पवित्र बनाते हैं तथा ये दोनों भाव ही सहिष्णुता की कुंजी है । मैत्री, प्रमोद एवं करुणा के भावों के बिना सम्यक्त्व की साधना असम्भव है । सम्यक्त्व की पूंजी को पाने के लिए हमारे पास पहले मैत्री, करुणा आदि की कुंजी होना चाहिए, क्योंकि मैत्री और करुणा की कुंजी द्वारा ही श्रावक अपने जीवन का निर्वाह प्रामाणिक नैतिकता और आध्यात्मिकता के साथ कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only 380 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy