________________
करता है, वैसे ही पात्र, उपकरण आदि रखता है, किन्तु मस्तक के बालों को उस्तरे से मुंडवा सकता है और यदि सहिष्णुता या शक्ति हो, तो लूंचन भी कर सकता है। साधु की तरह वह भिक्षा-चर्या से जीवन निर्वाह करता है, इतना अंतर अवश्य है कि साधु हर किसी के यहाँ भिक्षा हेतु जाता है, जबकि यह उपासक अपने सम्बंधियों के घरों में ही जाता है, क्योंकि उनके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध पूरी तरह मिट नहीं पाता है। इसकी आराधना का न्यूनतम काल-परिमाण एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट ग्यारह मास है।
दशाश्रुतस्कंध में कहा है कि श्रमणभूत श्रावक उस्तरे से सिर का मुंडन कराता है। साधु का आचार और मण्डोपकरण धारण कर अनगार-धर्म का काय से स्पर्श करता हुआ विचरता रहता है। त्रस जीवों की रक्षा के लिए पैरों को संकुचित कर लेता है। जातिवर्ग के मोह मात्र से नहीं छूटने के कारण भिक्षावृत्ति उन्हीं के घर जाकर करता है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में कहा है कि जो समस्त परिग्रह का त्याग करके, अपने घर से मुनियों के रहने के वन में जाकर, गुरुओं के समीप व्रतों को ग्रहण करके, खण्ड-वस्त्र धारण करके भिक्षा द्वारा भोजन करता हुआ तपश्चरण करता है, वह उत्कृष्ट श्रावक है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा और अमितगति-श्रावकाचार में कहा है कि जो गृह छोड़कर नवकोटि से विशुद्ध आहार करता है, वह उद्दिष्ट-त्यागी-श्रावक है।' उपासकाध्ययन में बताया है कि जो अपने भोजन के लिए किसी प्रकार की अनुमति नहीं देता है, वह उद्दिष्ट-त्याग –प्रतिमाधारी है। वसुनन्दि-श्रावकाचार व सागारधर्माऽमृत में इस प्रतिमा
* रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र - 147
1(क) कार्तिकेयानुप्रेक्षा - स्वामी कार्तिकेय - 70 (ख) अमितगति-श्रावकाचार - आ. अमितगति - 7/77 उपासकाध्ययन - आ. सोमदेव - 822 १ (क) वसुनन्दि-श्रावकाचार - आ. वसुनन्दी - पृ. - 301 (ख) सागारधर्माऽमृत - पं. आ धर-7/37-38
372
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org