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श्रमणभूत प्रतिमा का स्वरूप आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के उपासकप्रतिमाविधि-पंचाशक के अन्तर्गत ग्यारहवीं प्रतिमा के स्वरूप का प्रतिपादन करते
हैं
खुरमुंडो लोएण व रयहरणं उग्गहं व घेत्तूण | समणभूओ विहरइ धम्मं कारण फासंतो।। ममकारेऽवोच्छिणे वच्चति सण्णायपल्लि दठ्ठे जे । तत्थवि जहेव साहू गेण्हति फासुं तु आहारं । । पुव्वा उत्तं कप्पति पच्छाउत्तं तु ण खलु एयस्स ।
ओदणभिलिंगसूवादि सव्वमाहारजायं तु ।।
ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक उस्तरा या हाथों से लोच कर मुण्डित होता है एवं साधु के उपकरण - रजोहरण, पात्र आदि ग्रहण कर श्रमण के समान मन से ही नहीं, अपितु काया से भी संयमधर्म का पालन करते हुए विचरण करता है, परन्तु ममत्वभाव से युक्त होने के कारण अपने सम्बंधियों के यहाँ जाकर साधुवत् ही प्रासुक आहार ग्रहण करता है। आचार्य हरिभद्र ने यह स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक का अपने प्रियजनों के प्रति मोह का सर्वथा अभाव नहीं होता है, इसलिए उनसे मिलने के लिए जाना चाहे, तो जाता है, किन्तु उनके द्वारा दिया गया अकल्पनीय आहार ग्रहण नहीं करता है। ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक को स्वज्ञाति के घर पहुँचने से पूर्व बने हुए भोजन में दाल, चावल आदि पदार्थ लेने योग्य हैं, किन्तु पहुँचने के पश्चात् बनाया हुआ भोजन लेने योग्य नहीं है, क्योंकि गृहस्थ उनके निमित्त से भी दाल-भात आदि अधिक बनाएगा और ऐसी स्थिति में निमित्त की संभावना अधिकांशतया रहती ही है ।' उपासकदशांगसूत्रटीका के अनुसार पूर्वोक्त सभी नियमों का परिपालन करता हुआ साधक इस प्रतिमा में अपने को लगभग श्रमण या साधु जैसा बना लेता है। उसकी सभी क्रियाएँ एक श्रमण की तरह यतना और जागरूकतापूर्वक होती है। वह साधु जैसा वेश धारण
' पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 10/35,36, 37 - पृ. 174
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उपासकदशंगसूत्रटीका- आ. अभयदेवसूरि - पृ.
'दशाश्रुतस्कंधटीका - आ. अभयदेवसूरि - 6 / 27
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