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उद्दिष्टभत्तत्याग-प्रतिमाधारी श्रावक कहा जाता है। रत्नकरण्डक-श्रावकाचार और सागारधर्माऽमृत में कहा है कि जो आरम्भ में परिग्रह में, इस लोक-सम्बन्धी कार्य जैसे विवाह, गृह बनवाना, वाणिज्य, सेवा इत्यादि क्रिया में कुटुम्ब के लोग पूछे, तो भी अनुमति नहीं देता है, तुमने अच्छा किया- ऐसा मन, वचन और काया से प्रकट नहीं करता है, रागादि समबुद्धि वाला होता है, वह श्रावक अनुमतिविरत है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जो पापमूलक गृहस्थ के कार्यों की अनुमोदना नहीं करता है और गृहकार्यों में उदासीन रहता है, वह अनुमतिविरत प्रतिमाधारी श्रावक कहा गया है। अमितगति श्रावकाचार में धर्म-आसक्त, सर्वपरिग्रह से रहित पापकार्यों में अनुमति नहीं देने वाले को अनुमतित्यागी कहा गया है।
वसुनन्दि-श्रावकाचार में कहा गया है कि स्वजनों एवं परजनों द्वारा पूछे गए गृह–सम्बन्धी कार्यों में जो अनुमोदना नहीं करता है, उसके अनुमतिविरतप्रतिमा होती है।
दिगम्बर-परम्परा में इसे अनुमतित्याग नाम दिया गया है, जिसका समावेश श्वेताम्बर-परम्परा में उद्दिष्टमत्तवर्जन में कर लिया गया है।
इस प्रकार, उद्दिष्टमत्त या अनुमतित्यागप्रतिमा में गृहस्थ सर्व प्रकार के सावद्य-कार्यों को करना या अन्यों से करवाना तथा उनका अनुमोदन करना- इन तीनों का त्याग कर देता है, यहाँ तक कि अपने निमित्त से बनाया हुआ भोजन भी ग्रहण नहीं करता है, किसी भी प्रश्न का उत्तर हाँ या ना में ही देता है, आहार भी अपने पुत्र या स्वजन के घर पर करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि गृहस्थ-जीवन में रहते हुए भी वह गृहस्थ-धर्म से उपरत रहता है।
'अमितगति-श्रावकाचार - आ. अमितगति - 7/76
| वसुनन्दि-श्रावकाचार - आ. वसुनन्दी - पृ. - 300
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