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स्थिर रहता है, जो भोजन, स्नान, वस्त्रादि कर्मोदय से मिला है, उसे अधिक नहीं चाहता हुआ, संतोषरूप होकर, समस्त बांछा-दीनतारहित हो जाता है, साथ ही जो परिचित परिग्रह है, उससे भी अत्यन्त विरक्त रहता है, वह परिग्रहत्यागी श्रावक नौवें पदवाला होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बाहरी और भीतरी परिग्रह को पाप मानकर छोड़ देने को परिग्रहविरत होना कहा है। उपासकाध्ययन में समस्त परिग्रह के त्याग को परिग्रहविरत प्रतिमा बताया है। अमितगति-श्रावकाचार में कहा है कि यह परिग्रह रक्षण, उपार्जन, विनाश आदि के द्वारा जीवों को अतिभयंकर दुःख देता है- ऐसा समझकर जो परिग्रह का त्याग करता है, उसी को अपरिग्रही कहा जाता है। वसुनन्दि-श्रावकाचार व सागारधर्माऽमृत में कहा है कि जो वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर शेष परिग्रह को छोड़ देता है और उस व्रत में भी ममत्व नहीं रखता है, वह परिग्रहविरत प्रतिमा का धारक है।'
दिगम्बर-परम्परा के अनुसार इस प्रतिमा में श्रावक अपरिग्रह को धारण करता है, अर्थात् सांसारिक-गतिविधियों से विमुख हो जाता है, परन्तु आचार्य हरिभद्र के अनुसार इस प्रतिमा में साधक प्रेष्यत्याग करता है, अर्थात् आदेश देकर भी आरम्भ आदि के कार्य नहीं करवाता है, किन्तु परिग्रह का त्याग नहीं करता है। उद्दिष्ट-वर्जन-प्रतिमा का स्वरूप- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के उपासकप्रतिमा-विधि नामक पंचाशक में श्रावक की दसवीं प्रतिमा के निम्न स्वरूप का प्रतिपादन किया है
उद्दिट्ठकडं भत्तंपि वज्जती किमय सेससमारंभं ?। सो होइ उ खुरमुंडो सिहलिं वा धारती कोई।।
'अमितगति-श्रावकाचार - आ. अमितगति -1/715
1(क) वसुनन्दि-श्रावकाचार - आ. वसुनन्दी - पृ. - 295 (ख) सागारधर्माऽमृत - पं. आशाधर-7/23
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