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एद्दहमेत्तोऽवि इमो वज्जिज्जतो हियकरो उ।।' भव्वस्साणावीरिय-संफासणभावतो णिओगेणं । पुव्वोइय गुणजुत्तो ता वज्जति अट्ठ जा मासा।।
स्वयं की थोड़ी सी हिंसा का त्याग भी उसी प्रकार ही श्रेयस्कर ही है, जिस प्रकार भयानक रोग से ग्रसित व्यक्ति का रोग थोड़ा-सा ही कम हो जाए, तो भी उसके लिए हितकर ही होता है। इस नियम के पालन की मुख्यतः दो विशेषताएं हैं- एक तो जिनाज्ञा का पालन और दूसरा, हिंसात्याग में अपनी आन्तरिक शक्ति का उपयोग।
पहले की सात प्रतिमाओं से युक्त श्रावक आठवीं प्रतिमा में उत्ष्टतापूर्वक आठ माह तक स्वयं आरम्भ का त्याग करता है।
आचार्य हरिभद्र के अनुसार इस प्रतिमा में श्रावक स्वप्रेरित या स्वजनित कर्म (जिनसे आरम्भ होता है) का त्याग कर देता है, जबकि दिगम्बर-परम्परा में इसके अतिरिक्त गृहस्थ के सभी व्यापार एवं कार्यों से मुक्त होकर जीवन-यापन करता है। प्रेश्य-वर्जन-प्रतिमा का स्वरूप - आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के उपासकप्रतिमाविधि के अन्तर्गत् नवम् प्रतिमाधारी श्रावक किस नियम का पालन करता है एवं प्रेष्यवर्जन-प्रतिमा किसे कहते हैं- इसका विवेचन निम्न गाथाओं में किया है
पेसेहिऽवि आरंभं सावज्ज करावेइ णो गुरुयं । अत्थी संतुट्ठो वा एसो पुण होति विण्णे ओ।। निक्खित्तभरो पायं पुत्तादिसु अहव सेस परिवारे । थेवममत्तो य तहा सव्वत्थवि परिणओ नवरं ।। लोगव्यवहारविरओ बहुसो संवेगभावियमई य। पुव्वोदियगुणजुत्तो णव मासा जाव विहिणा उ।।'
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - पृ. -
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