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________________ आजीविका के निमित्त उदासीन भाव से सम्पादित कराता है, अर्थात् उस सावद्य - कार्य में उसकी आसक्ति नहीं होती है। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में यही आरम्भवर्जन - प्रतिमा है । ' उपासकदशांगसूत्रटीका में कहा गया है कि जो सचित्त- आहार का त्याग करता है, स्वयं आरम्भ व हिंसा नहीं करता है, किन्तु आजीविका के लिए दूसरों से करवाने का त्याग़ नहीं करता है, वही आरम्भवर्जन - प्रतिमा कहलाती है। इसकी काल-मर्यादा एक-दो या तीन दिन और उत्कृष्ट आठ मास है । 2 दशाश्रुतस्कंध में भी इसका यही स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। रत्नकरण्डक - श्रावकाचार में हिंसा के कारण भूतसेवा, कृषि तथा वाणिज्य आदि आरम्भ से निवृत्त होने को आरम्भत्याग–प्रतिमा कहा गया है। उपासकाध्ययन में खेती आदि नहीं करने को आरम्भत्याग बताया है । 483 वसुनन्दि-श्रावकाचार में कहा है कि पूर्व में जो थोड़ा बहुत गृह - सम्बन्धी आरम्भ होता है, उसे जो सदा के लिए त्याग करता है, वही आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक है। 484 इस प्रतिमा हेतु यह शंका की जाती है कि स्वयं आरम्भ न करके दूसरों से आरम्भ करवाना - यह कहाँ तक उचित है ? अर्थात् स्वयं थोड़ी-सी हिंसा का त्याग करके दूसरों से अधिक हिंसा करवाना - यह तो अनुचित ही है, क्योंकि हिंसा करने वाले तो बहुत कम हैं, लेकिन अहिंसा का विवेक रखने वाले कम हैं। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की ही सत्ताइसवीं तथा अट्ठाइसवीं गाथाओं में इसका समाधान दिया है निग्घिणतेगंतेणं एवंवि हु होइ चेव परिचत्ता । ' पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 10/26- पृ. 171 2 उपासकदशांगसूत्रटीका - आ. अभयदेवसूरि - पृ. - 67 3 'दशाश्रुतस्कंधटीका - आ. अभयदेवसूरि 6/24 4 रत्नकरण्डक - श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र - 144 Jain Education International — 483 उपासकाध्ययन - आ. सोमदेव - 821 484 वसुनन्दी श्रावकाचार - आ. वसुनन्दी - पृ. सं. - 298 1 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/27 - पृ. - 172 2 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/28 – पृ. - 172 For Personal & Private Use Only 365 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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