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धारी बताया गया है। वसुनन्दि-श्रावकाचार में अप्रासुक-जल का त्याग भी इसमें सम्मिलित माना गया है। उपासकाध्ययन में आठवीं प्रतिमा का नाम सचित्त-त्याग किया है। यहाँ सचित्त वस्तु के खाने के त्याग को सचित्त-त्याग-प्रतिमा-कहा है। अमितगति-श्रावकाचार में जिनवचनों का वेत्ता दयालुचित्त जो पुरुष किसी सचित्त वस्तु को नहीं खाता है, वह साधारण धर्म का पोषक एवं कषायों का विमोचक सचित्तत्यागप्रतिमाधारी कहा गया है। सागारधर्माऽमृत में चार प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करने वाला, हरे बीज, सचित्त जल और नमक नहीं खाने वाला सचित्तत्यागी श्रावक माना गया है।
आचार्य हरिभद्र द्वारा विवेचित श्रावक-प्रतिमाओं के सप्तम क्रम में साधक सचित्ताहार का त्याग करता है, जबकि दिगम्बर-परम्परा के क्रम में इसका क्रम पंचम स्थान पर आता है। दिगम्बर-परम्परा में सप्तम क्रम पर श्रावक ब्रह्मचर्यव्रत का पूर्णतया पालन करता है। श्वेताम्बर-परम्परा में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन छठवें क्रम पर है। आरम्भ-वर्जन-प्रतिमा का स्वरूप- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के उपासक-प्रतिमाविधि के अन्तर्गत् आरम्भवर्जन-प्रतिमा का विवेचन करते हुए यह बताया है कि आरम्भवर्जन-प्रतिमा किसे कहते हैं
वज्जइ सयमारंभं सावज्जं कारवेइ पेसेहिं। पुव्वप्पओगसोच्चिय वित्तिणिमित्तं सिढिलभावो।।
आठवी प्रतिमा वाला श्रावक कृषि (खेती) आदि आरम्भयुक्त पापकार्य को स्वयं छोड़ देता है, परन्तु सेवक आदि से सावद्य-कार्य करवाने का परित्याग नहीं करता है। प्रतिमा स्वीकार करने के पूर्व उसका आजीविका का जो साधन (कार्य) था, उसे ही
5 उपासकाध्ययन - आ. सोमदेव - 822 'अमितगति श्रावकाचार - आ. अमितगति -1/71 ' सागारधर्माऽमृत - पं. आशाधर- 7/8
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