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अब्रह्मवर्जन-रूप प्रतिमाधारी श्रावक श्रृंगार-कथा आदि के त्यागपूर्वक उत्कृष्टता से छ: महीने तक अब्रह्म का त्याग करता है। इसके अतिरिक्त, अन्य कुछ श्रावक आजीवन अब्रह्म का त्याग करते हैं। ऐसा इस लोक में देखा गया है। आचार्य हरिभद्र ने यह निर्देश दिया है कि जिसको प्रतिमा का वहन किए बिना ब्रह्मचर्य का पालन करना है, वह छ: महीना ही नहीं, अपितु जीवन भर इस व्रत का पालन कर सकता है।'
उपासकदशांगटीका के अनुसार पूर्वोक्त पांचों प्रतिमाओं से युक्त जो साधक मोह को जीतकर, रात्रि एवं दिन में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर, स्त्रियों से संलापादि नहीं कर श्रृंगारयुक्त वस्त्र भी धारण नहीं करता है, वह ब्रह्मचर्य- प्रतिमाधारी-श्रावक कहलाता है। इसका समय कम-से-कम एक-दो दिन व उत्कृष्ट छ: मास है।' दशाश्रुतस्कंध में कहा है कि ऐसा साधक दिन एवं रात्रि में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है, परन्तु सचित्त का परित्यागी नहीं होता। यह कम-से-कम एक-दो दिन और उत्कृष्ट छ: मास तक पालन-योग्य नियम है। दिगम्बर-परम्परा में ब्रह्मचर्य-प्रतिमा को सातवीं प्रतिमा माना है। इसके स्वरूप को बताते हुए रत्नकरण्डक-श्रावकाचार में मल का बीज, मल का आधार, मल को बहाने वाला, दुर्गन्ध से युक्त तथा वीभत्स आकार वाले स्त्री के अंगों को देखकर स्त्री-सेवन के सर्वथा त्याग को ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहा है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मन, वचन और काया से सभी प्रकार की स्त्रियों की अभिलाशा नहीं करनी करना ब्रह्मचर्य-प्रतिमा माना है।' उपासकाध्ययन, वसुनन्दि-श्रावकाचार तथा सागाराधर्माऽमृत में मन, वचन और काया द्वारा कृत, कारित और अनुमोदन से स्त्री-सेवन के त्याग को ब्रह्मचर्य-प्रतिमा कहा है। अमितगति-श्रावकाचार में बताया गया है कि विषय-सेवन से विरक्त-चित्त पुरुष,
। उपासकदशांगसूत्रटीका - आ. अभयदेवसूरि - पृ. - 66-67
दशाश्रुतस्कंधटीका - आ. अभयदेवसूरि -6/22 रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र-7/143 - पृ. -471 + कार्तिकेयानुप्रेक्षा - स्वामी कार्तिकेय - 83 5(क) उपासकाध्ययन - आ. सोमदेव - 821 (ख) वसुनन्दि-श्रावकाचार – आ. वसुनन्दि - पृ. सं. - 297
(ग) सागारधर्माऽमृत - पं. आशाधर-7/16 6 अमितगति-श्रावकाचार - आ. अमितगति - 73
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