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________________ अब्रह्मवर्जन - प्रतिमा का स्वरूप आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के उपासक—प्रतिमाविधि में पूर्वोक्त प्रतिमाओं के नियमों का पालन करते हुए साधक किस प्रकार छठवीं प्रतिमा को धारण करता है, इसका विवेचन किया गया हैपुव्वोइयगुणजुत्तो विसेसओ विजिय मोहणिज्जो य । वज्जइ अबंभमेगंतओ उ राइंपि थिरचित्तो ।। पूर्व में धारण किए हुए सम्यग्दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषधकायोत्सर्ग - इन पांच प्रतिमारूप गुणों से युक्त और पांचवीं प्रतिमा द्वारा विशेष रूप से काम पर विजय प्राप्त करने वाला श्रावक छठवीं अब्रह्मवर्जन - प्रतिमा में अविचलित चित्तवाला होकर रात्रि में भी काम-वासना का पूर्णरूपेण त्याग करता है । ' यहाँ विशेष रूप से इस बात को स्पष्ट किया है कि पांचवीं और छठवीं प्रतिमा में कुछ भेद हैं। पांचवीं प्रतिमा में रात्रि में मैथुन - सेवन का सर्वथा त्याग नहीं होता है, जबकि छठवीं प्रतिमा में दिवस व रात्रि में मैथुन - सेवन का सर्वथा त्याग होता है । आचार्य हरिभद्र ने कायोत्सर्ग - प्रतिमाधारी के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए कहा है सिंगारकहाविरओ इत्थीऍ समं रहम्मि णो ठाइ । चयइ य अतिप्पसंगं तहा विहुसं च उक्कोसं । । श्रृंगारिक-कथाएँ त्याग करने वाला, स्त्री के साथ एकान्त में नहीं बैठने वाला, स्त्रियों से प्रत्यक्ष परिचय नहीं करने वाला तथा शरीर के विशेष श्रृंगार एवं वेशभूषा आदि का त्याग करने वाला छठवीं प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक कहलाता है । 2 आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत प्रतिमा का काल प्रस्तुत अध्याय में इस प्रकार बताया है एवं जा छम्मासा एसोऽहिगतो इहरहा दिट्ठं । जावज्जीवंपि इमं वज्जइ एयम्मि लोगम्मि ।। आ. हरिभद्रसूरि - 10 /20 - पृ. - 170 पंचाशक- प्रकरण 2 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 10 / 21 - पृ. - 170 3 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 10/22- पृ. 170 Jain Education International For Personal & Private Use Only 360 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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