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________________ स्त्री की गुणरूपी रत्नों को चुराने वाला मानकर मन, वचन व काया से उसका सेवन नहीं करता है, वह ब्रह्मचर्य-प्रतिमाधारी-श्रावक होता है। प्रस्तुत प्रतिमा में दोनों परम्पराओं में सूक्ष्म भिन्नता है। आचार्य हरिभद्र दिन एवं रात्रि मैथुन-सेवन का त्याग बताते हैं, जबकि दिगम्बर–साहित्य में इस प्रतिमा का क्रम सातवां है, परन्तु हमारा आधार हरिभद्रसूरिरचित पंचाशक-प्रकरण है, इस कारण यहाँ अब्रह्मवर्जनप्रतिमा के स्वरूप का ही प्रतिपादन किया गया है। सचित्त-वर्जन-प्रतिमा- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के उपासकप्रतिमाविधि के अन्तर्गत सातवीं सचित्तत्याग-प्रतिमा का विवेचन किया है। सचित्तं आहारं वज्जइ असणादियं णिरवसेसं । असणे चाउलउंबिगचणगादी सव्वहा सम्मं ।। सातवीं प्रतिमाधारी श्रावक पूर्ववत् सभी प्रतिमाओं का नियमपूर्वक सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए अशन, पान, खादिम और स्वादिम– इन चार प्रकार के सचित्त-भोजन का त्याग करता है। अशन में चावल, गेहूँ, चना आदि के सचित्त आहार का सम्यक् प्रकार से त्याग करता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने आगे की गाथाओं में स्पष्ट किया है कि सचित्त वर्जन प्रतिमाधारी और किन-किन वस्तुओं का त्याग करता है पाणे आउक्कायं सचित्तरससंजुअं तहऽण्णंपि। पंचबरिकक्कडिगाइयं च तह खाइये सव्वं ।। दंतवणं तंबोलं हरेडगादी य साइये सेसं। सेसपय समाउत्तो जा मासा सत्त विहिपुव्वं ।। 1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/23 - पृ. 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/24 - पृ. - 171 362 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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