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________________ सावद्य क्रिया का त्याग करता है। यह सामायिक अल्पकालीन है, अर्थात् मात्र दो घड़ी के लिए होती है। सामायिक श्रावक के लिए प्रधान गुणस्थानरूप है, अर्थात् श्रावक के देशविरत होने के कारण सामायिक को प्रधान गुणस्थानरूप भी बताया गया है। प्रश्न उठता है कि सामायिक को प्रधान गुणस्थान क्यों माना गया ? आचार्य हरिभद्र ने इसका समाधान करते हुए पंचाशक प्रकरण के उपासक प्रतिमाविधि में कहा है सामाइयंमि उ कए समणोइव सावओ जतो भणितो। बहुसो विहाणमस्स य तम्हा एयं जहुत्तगुणं ।।' सामायिक करता हुआ श्रावक श्रमण के तुल्य होता है तथा श्रमण की तरह ही मोक्ष सुख के परमसाधन रूप समभाव का अनुभव करता है, इसलिए सामायिक को परम गुणस्थान का सम्मान देते हुए श्रावक को बार-बार सामायिक करने की प्रेरणा दी गई है। उपासकदशांगसूत्र की टीका के अनुसार सम्यग्दर्शन और अणुव्रतों को स्वीकार करने के पश्चात् प्रतिदिन तीन बार सामायिक करने की स्थिति को सामायिक-प्रतिमा कहा गया है। दशाश्रुतस्कंध में पूर्वोक्त दोनों प्रतिमाओं के साथ-साथ सामायिक एवं देशावकाशिक-शिक्षाव्रत का भी सम्यक् परिपालन तो होता है, परन्तु अष्टमी, चतुदर्शी, अमावस्या, पूर्णमासी को परिपूर्ण पौषधवास का सम्यक् परिपालन नहीं होता है, उसे सामायिक–प्रतिमाधारी कहा है। रत्नकरण्डक-श्रावकाचार में चार बार तीन-तीन आवर्त और चार बार नमस्कार करने वाला यथा- जातरूप से अवस्थित होकर खड्गासन एवं पद्मासन से ध्यान करने वाला, मन, वचन, काय की शुद्धि से युक्त, तीनों समय सामायिक करने वाला सामायिक-प्रतिमाधारी कहा है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार जो बारह आवर्त सहित चार प्रमाण और दो नमस्कारों को करता हुआ कायोत्सर्ग में अपने 1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/12 - पृ. - 167 2 उपासकदशांगसूत्रटीका - आ. अभयदेवसूरि - प्रथम अध्याय 3 दशाश्रुतस्कंधटीका - आ. अभयदेवसूरि - 6/19 + रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र-7/139- पृ. -470 354 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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