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होती है। अणुव्रत क्षायोपशमिक भावजन्य होतें हैं, इसलिए ये आत्मा के प्रशस्त परिणाम
हैं।
व्रत-प्रतिमा में गुण-दोषों की स्थिति- आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय में व्रत-प्रतिमा के गुण-दोषों का वर्णन करते हुए कहा है
बंधादि असक्किरिया संतेसु इमेसु पहवइ ण पायं।
अणुकंपधम्मसवणादिया उ पहवति विसेसेण।। इन अणुव्रतों का परिपालन होने पर इन अणुव्रतों के अतिचार रूप बंध-वध आदि अयोग्य आचरण प्रायः नहीं होता है। इस व्रत-प्रतिमा के अन्तर्गत जीवानुकम्पा, धर्मागम-श्रवण आदि शुभ क्रियाएँ अधिकतम होती हैं।
इस प्रकार अतिचाररहित पांच अणुव्रतों के पालन रूप द्वितीय व्रत-प्रतिमा
आचार्य हरिभद्र के अनुसार भी इस प्रतिमा में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं दो शिक्षाव्रत ही मान्य हैं, जबकि दिगम्बर-परम्परा के क्रम में बारह ही व्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन करने का निर्देश प्राप्त होता है। सामायिक-व्रत- आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के उपासकप्रतिमा विधि में तृतीय सामायिक प्रतिमा का विवेचन करते हुए कहते हैं
सावज्जजोग परिवज्जणादिरूवं तु होइ विण्णेयं ।
सामाइयमित्तरियं गिहिणो परमं गुणट्ठाणं ।। सावद्ययोग के त्याग और निरवद्ययोग के आचरण को सामायिक कहा जाता है। यह सामायिक आत्मा के प्रशमभाव के लिए की जाती है। सामायिक करता हुआ श्रावक श्रमण के समान ही समत्वयोग की साधना का अनुभव करता है। तीन योग एवं दो करण से
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/10 - पृ. - * पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/11 - पृ. -
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