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आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की निम्न गाथा में यह भी स्पष्ट किया है कि चैत्यालय में प्रवेश कैसे करना चाहिए, परमात्मा का बहुमान कैसे करना चाहिए, प्रत्याख्यान किससे ग्रहण करना चाहिए और गुरु के पास जाकर क्या करना चाहिए।
तह चेईहरगमणं सक्कारो वंदणं गुरुसगासे।
पच्चक्खाणं सवणं जहपुच्छा उचियकरणिज्जं ।। 1. विधिपूर्वक जिनालय जाना चाहिए एवं जिनालय में विधिपूर्वक प्रवेश करना चाहिए, जिसकी विशेष विधि आगे स्पष्ट की जा रही है। 2. जिन-मंदिर में परमात्मा का सत्कार करना चाहिए। 3. परमात्मा के सम्मुख चैत्यवन्दन (देववन्दन) करना चाहिए। इसके पश्चात् गुरु के समीप प्रत्याख्यान करना चाहिए। गुरु से आगम का श्रवण करना चाहिए। मुनिजनों से उनके स्वास्थ्य, संयम-साधना आदि के विषय में पूछना चाहिए, क्योंकि स्वास्थ्य आदि के विषय में पूछने से हमारे विनय एवं विवेक का परिचय मिलता है, कर्तव्य-परायणता का बोध होता है, श्रावक की सम्यक् भूमिका का ज्ञान होता है। गुरु से उनके स्वास्थ्य आदि के सम्बन्ध में पूछने के बाद यदि औषध आदि की आवश्यकता हो, तो उसकी शीघ्र ही व्यवस्था करना चाहिए। यदि सेवा के लिए पूछकर भी सेवा के योग्य व्यवस्था नहीं की, तो वह पूछना भी विनय एवं विवेक का प्रतीक नहीं होता है। सेवा का पूछना विनय का प्रदर्शन तो हो जाएगा, पर वास्तविक विनय का परिचय नहीं होगा, अतः ऐसी स्थिति में आवश्यक औषध आदि की व्यवस्था शीघ्र करना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र ने श्रावकधर्मविधि-पंचाशक की चंवालीसवीं गाथा में श्रावक के कर्तव्य के क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा है
अविरुद्धो ववहारो काले तह भोयणं च संवरणं। चेइहरागमसवणं सक्कारो वंदणाई य।।
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/44 - पृ. - 17
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