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है एवं श्रावक को करने योग्य विशेष कर्तव्यों को आगे की गाथाओं में इस प्रकार निर्देश किया गया है -
निवसेज्ज तत्थ सद्धो साहूणं जत्थ होइ संपाओ।
चेइयहराइं जम्मि य तयण्णसाहम्मिया चेव ।। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक की उक्त गाथा में श्रावकों का इस बात पर विशेष रूप से ध्यान दिलाया है कि जिन स्थानों में साधुओं का आगमन होता हो, जहाँ जिन-मंदिर हो तथा जहाँ स्वधर्मी बन्धु हों, वहीं श्रावक को रहना चाहिए, जिससे श्रावक को साधु-साध्वियों की सेवा का भी लाभ प्राप्त हो और स्वधर्मी बन्धु की सेवा का भी अवसर
मिले।
आचार्य हरिभद्र ने श्रावक की दिनचर्या का विवरण पंचाशक-प्रकरण में इस प्रकार दिया है
णवकारण विबोहो अणुसरणं सावओ वयाइं मे। जोगो चिइवंदणमो पच्चक्खाणं च विहिपुव्वं । ।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक की प्रस्तुत गाथा में श्रावक की दैनिकचर्या पांच नियमों का उल्लेख किया है। श्रावक उठते ही क्या करे ? इसका उसे स्पष्ट निर्देश दे दिया गया है। वह उठते ही पांच कार्य करे
1. नवकार-मंत्र का स्मरण करते-करते उठे। 2. मैं श्रावक हूँ, मेरे द्वारा सम्यक्त्व एवं अणुव्रत आदि के पालन का नियम लिया गया
है- इसका स्मरण करें। 3. फिर, नित्यक्रिया आदि से निवृत्त हों। 4. उसके बाद विधिपूर्वक पूजा करने के पश्चात् चैत्यवन्दन करे। 5. तत्पश्चात् गुरु से विधिपूर्वक प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) करे।
इन पांच नियमों का प्रतिदिन पालन करे।
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/42 – पृ. - 17 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-1/43 - पृ. सं. - 17
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