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________________ ता एती बुद्धिमया अपमाओ होइ कायत्वो।। 35 ।। तीर्थकर-भक्ति, गुरुसेवा, व्रत-पालन आदि करने पर भी यदि सम्यक्त्व और व्रतों के धारण करने रूप परिणाम न होने पर भी तदनुरूप परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं और ऐसे परिणाम उत्पन्न होने के बाद जाते भी नहीं हैं, इसलिये बुद्धिमान् श्रावकों को व्रतों का स्मरण एवं पालन प्रमादरहित होकर करना चाहिए। जहां प्रमाद होगा, वहां स्मरण और पालन में शिथिलता आ जाएगी, अतः श्रावक को प्रति समय जागृत रहना चाहिए। __ आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रथम पंचाशक की उनचालीसवीं गाथा में बताया है एत्थ उ सावयधम्मो पायमणुव्वयगुणव्वयाइं च । आवकहियाइं सिक्खावयाइं पुण इत्तराइंति।। श्रावक-धर्म के अणुव्रतों और गुणव्रतों का पालन प्रायः जीवन-पर्यन्त होता है, परन्तु शिक्षाव्रतों का पालन कुछ समय के लिए होता है। ___ प्रश्न है कि अणुव्रतों एवं गुणव्रतों के नियम ग्रहण करने के साथ जीवन-पर्यन्त शब्द क्यों लगाया जाता है ? यह शब्द इसलिए लगाया जाता है कि ये व्रत कुछ समय (चातुर्मास आदि, अथवा दो महीने आदि) के लिये भी ग्रहण किए जाते हैं, अतः उनकी अधिकतम काख-मर्यादा को सूचित करने के लिए प्रायः यावज्जीवन शब्द का प्रयोग किया जाता है। आचार्य हरिभद्र ने संलेखना-व्रत को श्रावक के व्रतों में नहीं लिया है और उसको नहीं लेने का कारण पंचाशक की प्रस्तुत गाथा से स्पष्ट किया है संलेहणा य अंतेण णिओगा जेण पव्वयइ कोई। ____ तम्हाणो इह भणिया विहिसेसमिभस्स वोच्छामि।। किसी भी मुनि के समान अन्त समय में संलेखना लेना सम्यक्त्वी श्रावक के लिए आवश्यक नहीं है, इसी कारण संलेखना का श्रावक के व्रतों में प्रतिपादन नहीं किया गया 335 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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