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तक मेरे भीतर सम्यक्त्व एवं अणुव्रत आदि की सुवास बनी रहे। भगवन्! आपका मेरे पर अनन्त उपकार है, आपने अनादि से चले आ रहे अनन्त-अनन्त पापों से मुझे बचाकर मेरे जीवन को मर्यादित एवं संयमित कर दिया है।' गृहस्थ को ऐसे अनन्त उपकारी, करुणावतार, जगत्-वत्सल, तीर्थंकर परमात्मा की स्तुति, भक्ति, गुणगान करना चाहिए, जिसे पंचाशक-प्रकरण की सैंतीसवीं गाथा में आचार्य हरिभद्र ने इस प्रकार निर्देशित किया है
तित्थंकर भत्तीए सुसाहुजणपज्जुवासणाए य।
उत्तरगुणसद्धाए य एत्थ सया होइ जइयव्वं ।। 35 ।।' तीर्थकर परमात्मा की भक्ति करना चाहिए, क्योंकि तीर्थंकर की भक्ति तीर्थकर-गोत्र का बंध करवा देती है, अर्थात् तीर्थंकर की भक्ति तीर्थकर-पद की प्राप्ति करवा देती है।
ज्ञातासूत्र के उन्नीसवें' अध्ययन के अनुसार अरिहंतों की भक्ति करने से तीर्थकर-गोत्र बंधता है, साथ ही आचार्य हरिभद्र ने गुरु की सेवा का निर्देश करते हुए कहा है कि तीर्थकर भी गुरु के समान ही भव-सागर से जीवन नैया को पार लगाने में तत्पर रहते हैं। गुरु अज्ञान के अन्धकार को नष्ट कर ज्ञानांजन द्वारा अन्तर्चक्षु खोल देते हैं। गुरु भीतर से नवनीत की तरह हैं और बाहर से कुम्हार की तरह होते हैं, जो शिष्य को सद्गति से सिद्धगति की ओर ले जाते हैं, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाते हैं, अतः ऐसे परम उपकारी सद्मार्ग-प्रकाशक षट्काय-रक्षक गुरु की सेवा करना चाहिए तथा उनके गुणों को जीवन में धारण करना चाहिए। मूल एवं उत्तरगुणों का पालन करते हुए तथा उन पर श्रद्धा (विश्वास) रखते हुए उनके पालना में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की अड़तीसवीं गाथा में पुनः श्रावकों को प्रेरणा देते हुए कहा है
एवमसंतोऽवि इमो जायइ जाओऽवि ण पडइ कयाई।
| पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/37 – पृ. - 15
ज्ञातांग-सूत्र - भ. महावीर - अध्ययन- 19 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-1/38, 41 तक - पृ. - 16,17,18
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