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________________ अविरुद्ध व्यापार करना चाहिए, अर्थात् शास्त्र के विरुद्ध व्यापार नहीं करना चाहिए। पन्द्रह कर्मादान तथा अनीति आदि का त्याग करके जिसमें अत्यल्प आरम्भ या पाप हो- ऐसी विधि से व्यापार करने का प्रयत्न करना चाहिए। उसके पश्चात् शास्त्रोक्त-विधि से यथासम्भव भोजन करना चाहिए। इस विषय में कहा गया है कि भोजन समय पर करने से शरीर निरोग रहता है। असमय भोजन करने से धार्मिक साधना में व्यवधान होता है तथा शारीरिक-स्वास्थ्य की भी हानि होती है। भोजन के पश्चात् प्रत्याख्यान करना चाहिए, फिर जिन-मंदिर में जाकर आगम का श्रवण करना चाहिए, पश्चात् जिनमूर्ति के समक्ष चैत्यवन्दन करना चाहिए। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की पैंतालीसवीं गाथा में निर्देश दिया है कि यदि मुनिजन वैयावृत्य करते-करते थक गए हों और विशेष कारण से विश्राम करना चाहते हों, तो श्रावकों को चाहिए कि उन्हें विश्राम करने के लिए अवसर दें, उसमें किसी भी प्रकार का व्यवधान न करें। उनके विश्राम करने में सहयोगी बनें। फिर, नमस्कार–महामंत्र का ध्यान करना चाहिए तथा याद किए गए प्रकरण आदि का पाठ करना चाहिए, अथवा अन्य श्रावकोचित कार्य करना चाहिए। इसके पश्चात् घर जाकर विधिपूर्वक शयन करना चाहिए तथा शयन के पूर्व देव, गुरु धर्म आदि का स्मरण करना चाहिए जइविस्सामणमुचिओ जोगो नवकारचिंतणाईओ। गिहिगमणं विहिसुवणं सरणं गुरुदेवयाईणं।।' आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की छियालीसवीं गाथा में श्रावक को विशेष बोध देते हुए कहा है कि अब्रह्म का त्याग करना चाहिए। इसके लिए स्त्री के भोग के कारणरूप पुरुषवेद आदि की निन्दा करना चाहिए। स्त्री के शरीर के वीभत्स स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। वह शरीर अशुचि का सदन है, अशुचि से ही उत्पन्न होता है और अशुचिरूप पदार्थों से ही इसका पोषण होता है। शरीर के भीतर है ही क्या ? वह भी हड्डी, मांस, वीर्य, रक्त, पीप आदि का ही ढांचा है, जो पुरुषों के नौ एवं स्त्रियों के । पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/45 - पृ. - 18 • पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/46 – पृ. - 18 338 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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