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प्रयत्न- सम्यक्त्व आदि व्रतों को स्वीकार करने के बाद व्रतों की स्मृति रखना- यह प्रयत्न है, साथ ही जिसका प्रत्याख्यान नहीं किया हो, उसका यथाशक्ति त्याग करना भी प्रयत्न है। विषय- व्रतों के स्वरूप को तथा जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को जानना- यह विषय-ज्ञान है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में श्रावकों को निर्देश दिया है कि यदि सम्यक्त्व तथा विरति के भाव नहीं भी हैं, तो भी उन व्रतों को लेने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्व और विरति के परिणाम के नहीं होने पर भी उन्हें स्वीकार करने के बाद प्रयत्न करने से वे परिणाम होते हैं, क्योंकि परिणामों को रोकने वाले कर्मों का क्षयोपशम होता है और विशिष्ट प्रयत्नों से कर्मों का विशेष क्षयोपशम होता है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में यह भी कहा है कि व्रत ग्रहण करते समय शुभ परिणाम हुए हों और यदि उन परिणामों को रक्षण करने का प्रयत्न नहीं किया जाए, तो अशुभ कर्म के उदय से सम्यक्त्व और विरति के परिणाम भी नष्ट हो जाते हैं
गहणादुवरि पयत्ता होइ असन्तोऽवि विरइ परिणामो। अकुसलकम्मोदयओ पडइ अवण्णाइ लिंगमिह ।।35 ।।'
आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के श्रावकधर्मविधि-पंचाशक में व्रतों को सुरक्षित रखने के लिए श्रावकों को सूक्ष्मतम बातों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
तम्हाणिच्चसतीए बहुमाणेणं च अहिगयगुणम्मि। पडिवक्खदुगुंछाए परिणइ आलोयणेणं च।।
स्वीकृत किए गए व्रतों को सदा स्मरण में रखना चाहिए तथा व्रतों के पालन के प्रति बहुमान के भाव रखना चाहिए, क्योंकि व्रतो के स्मरण एवं व्रतों के प्रति बहुमान के भाव से कभी भी आत्मा व्रतों से विचलित नहीं होगी एवं शुभभाव अशुभभावों में परिवर्तित नहीं होंगे ? साथ ही, यह भी बताया है कि व्रतों के विरोधी मिथ्यात्व आदि के
। पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/35 - 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/36 - पृ. -
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