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________________ प्रति भी सदैव जुगुप्सा भाव रखना चाहिए। चूंकि अतिचार लगने में मूल कारण मिथ्यात्व है, इसलिए सर्वप्रथम मिथ्यात्व के अंधकार को मिटाना आवश्यक है, परन्तु इसके पूर्व मिथ्यात्व क्या है- इसे समझना भी आवश्यक है, क्योंकि मिथ्यात्व का सम्बंध आत्मा के साथ अनादि से है, अतः आत्मा का यह बहुत बड़ा दोष है। प्रश्न उठता है कि जब मिथ्यात्व का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल से है, फिर इसे दोष क्यों बताया तथा इसे कैसे अलग कर सकते हैं ? आत्मा के साथ अनादि का सम्बन्ध होने से यह दोष न हो तथा इसे उन्मूलित नहीं किया जा सकता है- ऐसा कोई नियम नहीं है। जैसे मिट्टी और स्वर्ण की खान में अनादिकाल से सम्बन्ध है, जिसके कारण स्वर्ण अशुद्ध बना रहता है, किन्तु यान्त्रिक साधनों से स्वर्ण और मिट्टी को पृथक् भी करते हैं, इसी प्रकार आत्मा के साथ अनादिकाल से रहे हुए मिथ्यात्व को भी आत्मा से अलग किया जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि जो जीव अभव्य हैं, उनकी आत्मा से मिथ्यात्व पृथक् नहीं होता है। प्रश्न है कि अभव्य किसे कहते हैं ? जिसमें असार संसार से विरक्त होने की योग्यता नहीं है, संयम-साधना करने पर भी जिसमें सम्यक् समझ का विकास नहीं है, वह अभव्य है। भव्य वह है, जो मिथ्यात्व को पृथक् करने का प्रयास करता है तथा जिसमें मोक्ष जाने की तीव्र अभिलाषा होती है। अभव्य जीव उसे बाबड़िए मूंग की तरह है, जिसमें सीझने (पकने) की योग्यता ही नहीं है। जब श्रावक सम्यक्त्व सहित व्रतों का ग्रहण करता है, उस समय आत्मा में विशेष प्रकार की शुद्धि का जन्म होता है, पर यह शुद्धि पूर्ण रूप से मिथ्यात्व को नष्ट करने में समर्थ नहीं होती है। कभी भी उपशांत-मिथ्यात्व प्रकट हो सकता है, जीव को भ्रमित कर सकता है एवं व्रतों को दूषित कर सकता है। कई लोग व्रतों को दूषित करने पर अपने लिए कहते हैं कि क्या करें ? अशुभ कर्म का उदय है। ज्ञानी पुरुषों का कथन है कि यह कथन व्रतों को दूषित ही नहीं, व्रतों को भंग करने की रीति है, परन्तु यह कथन दूसरों के लिए करना चाहिए कि देखो ! इसके ऐसे अशुभ कर्मों का उदय था, जो व्रत को दूषित, अथवा खण्डित कर देता है। इस चिन्तन से हमें किसी के प्रति द्वेष नहीं होगा तथा अपने व्रत दूषित नहीं 332 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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