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स्थिति में व्यक्ति के मन को विचलित भी कर देते हैं और इस स्थिति में व्रतों से विचलित होना ही अतिचार है।
डॉ सागरमल जैन ने पंचाशक-प्रकरण की भूमिका में प्रथम पंचाशक की समीक्षा में कहा है कि व्रत ग्रहण कर लेने के पश्चात् श्रावक के आचरण में शिथिलता आने लगती है, जिसके कारण वह दोष-युक्त हो जाता है, फलतः व्रत से च्युत होने के भय बना रहता है। यह भी है कि व्रत लेने के बाद जब मन डिगता है, तो व्रतबंधन प्रतीत होने लगते हैं, पर फिर भी यदि श्रावक पाप-भीरु है, तो वह मन को पुनः सम्भाल लेता है और व्रत भंग न हो, व्रत दूषित न हो- इस प्रकार के चिन्तन से मन को व्रत में स्थिर करने का पुरुषार्थ करता है।390
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रथम अध्याय श्रावक-धर्मविधि में स्थिर चित्त हेतु प्रेरणा देते हुए निम्न उदाहरण के माध्यम से कहा है
__ सम्यक्त्व आदि श्रावक के व्रतों के पालन हेतु उपाय, रक्षण, ग्रहण, प्रयत्न और विषय- इन पांच बातों पर श्रावकों को विशेष रूप से सजग रहना चाहिए। जिस प्रकार कुम्हार द्वारा दण्ड से चक्र के किसी एक भाग को चलाने से पूरा चक्र घूमता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व आदि व्रतों के निरूपण के साथ ही उपाय, ग्रहण, रक्षण आदि का भी समावेश हो जाता है।
सुत्तादुपायरक्खणगहणपयत्तविसया मुणेयव्वा ।
कुभारचक्कभामगदंडाहरणेण धीरेहिं । ।34 ।।' उपाय- सम्यक्त्व आदि व्रतों की प्राप्ति का प्रयत्न करना उपाय है। ग्रहण- सम्यक्त्व आदि व्रतों को स्वीकार करना ग्रहण है।
स्वीकृत सम्यक्त्व आदि व्रतों का सावधानी से पालन करना रक्षण है।
रक्षण
'पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/34 - पृ. - 14
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