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धन्य यशश्चा पुष्पं स्वर्ग्य वदतिथि पूजनम्।।
इसी प्रकार, न वै स्वयं तदश्नीयादतिथि यन्न भोजयेत्, अर्थात् जो अतिथि
को न खिलाया जा सके, वह स्वयं भी नहीं खाना चाहिए | 1
श्रावकव्रतों के विवेचन में हरिभद्र का वैशिष्ट्य
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण में अतिचारों का विवरण देते हुए कहा है कि श्रावक को इन अतिचारों का त्याग करना चाहिए | पंचशक - प्रकरण के अनुसार श्रावक अतिचारों का त्याग करता है - इस कथन का तात्पर्य यह है कि देशविरति के अखण्ड परिणामों से परिशुद्ध श्रावक के सभी व्रतों का निर्दोष रूप से पालन करता है, अतः वह किसी अतिचार का सेवन नहीं करता है, इसलिए अतिचार के वर्णन में सभी स्थानों पर अतिचारों का त्याग करता है- ऐसा कहा गया है। श्रावक जब व्रत स्वीकार करता है, तब देशविरति के परिणाम के प्रतिबन्धक कर्मों का उदय नहीं होने के कारण देशविरति का तात्त्विक - परिणाम होता है, इसलिए जीव स्वेच्छा से ही अतिचारों में प्रवृत्ति नहीं करता है। ऐसा माना गया है -
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एत्थं पुण अइयारा णो परिसुद्धेसु होति सव्वेसु ।
अक्खंड विरइभावा वज्जइ सव्वत्थ तो भणियं । 33 । । 1
प्रश्न उठता है कि सभी व्रतों के साथ अतिचार के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, परन्तु जब व्यक्ति अपनी इच्छानुसार व्रत लेता है, तो फिर वह व्रत-भंग क्यों करेगा ? अर्थात् स्वेच्छा से लिए हुए व्रत को क्यों भंग करेगा ? पर यह आवश्यक नहीं है कि स्वेच्छा से व्रत लेने वाला व्यक्ति कभी भी व्रतों का भंग नहीं करे, यह अवश्य है कि जब व्रत लिए होंगे, तब भावोल्लास होगा, अन्तस् में सत्व होगा ? दृढ़ता के साथ पालन करूंगा- ऐसे भाव होंगे, परन्तु भाव सभी कालों में समान रूप से नहीं रहते हैं, अतः कुछ अवधि के बाद लाभ-हानि के निमित्त या अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंग की
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1 पंचा कि प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1 / 33 - पृ. सं. 14
390 पंचा क प्रकरण भूमिका - डॉ सागरमल जैन -
पृ. सं. 13
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