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________________ क्या ? यदि होते, तो मान-सम्मान से भोजन आदि के लिए उसे अपने घर लेकर आते थे। जैन-परम्परा के समान ही अन्य परम्परा में भी अतिथि की महिमा का वर्णन प्रसिद्ध है। सूक्ति प्रसिद्ध है- अतिथि देवो भवः, अर्थात् अतिथि देवतुल्य है। वाल्मिकी रामायण में अतिथि का महत्व इस प्रकार बताया गया हैयथामृत्स्य सम्प्राप्तिः यथा वर्षमनूदके। यथा सदृशदारेषु पुत्र जन्मा प्रजस्यवै।। प्रणष्टस्य यथा लाभो यथा हर्षो महोदया। तथैवागमनं मन्ये स्वागतं ते महामुने।।' जैसे किसी मरणधर्मा मनुष्य को अमृत की प्राप्ति हो जाए, निर्जल प्रदेश में पानी बरस जाए, किसी संतानहीन को अपने अनुरूप पत्नी के गर्भ से पुत्र की प्राप्ति हो जाए, खोई हुई निधि मिल जाए तथा किसी महान् उत्सव से हर्ष की प्राप्ति हो, उसी प्रकार का आपका यहाँ शुभागमन हमारे लिए है- ऐसा मैं मानता हूँ। हे महामुनि ! आपका स्वागत है। अथर्ववेद में भी कहा गया है “कीर्ति च वा एश यशश्चगृहाणामश्नाति यः पूर्वोऽतिथेरश्नाति", अर्थात् वे गृहस्थ, जो अतिथि से पूर्व भोजन लेते हैं, के घर की कीर्ति और यशस्विता का नाश करते हैं। "श्रियं च वा एष संविदं च गृहाणामश्नाति यः पूर्वोऽतिथेरश्नाति", अर्थात् जो अतिथि से पूर्व भोजन करने वाले गृहस्थ हैं, वे घर की श्री और सहमति- भावना को ही विनश्ट करते हैं। नवै स्वयं तथश्नीयदतिथि यत्न भोजयेत्। वाल्मिकी रामायण - बालकाण्ड - अष्टादशसर्ग - गाथा-50-52 -पृ. - 72 - अथर्ववेद -श्रीराम शर्मा, आचार्य - अतिथिसत्कार - गाथा-5 -पृ. - 3 अथर्ववेद -श्रीराम शर्मा, आचार्य - अतिथिसत्कार - गाथा-6 - पृ. - 4 मनुस्मृति - स. श्रीराम शर्मा, आचार्य - गाथा-106 - पृ. - 101 328 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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