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अर्थदण्ड से ज्यादा अनर्थदण्ड करता है, आवश्यक पाप की अपेक्षा अनावश्यक पाप अधिक करता है। वह अनावश्यक पाप भी मन, वचन एवं काया से करता ही रहता है। व्यक्ति के मस्तिष्क में आवश्यक व अनावश्यक पापों के सम्बन्ध में श्रृंखला होना चाहिए, जिससे वह अनावश्यक पापों से बच सकें एवं आवश्यक कार्य को आवश्यक समझकर ही कर सकें। अधिकांश गृहस्थ पाप-कार्य करते हुए यह ध्यान नहीं रख पाते हैं कि वह कार्य उनके लिए कहाँ तक अनिवार्य है, जैसे- नाटक, सर्कस देखना कहाँ आवश्यक है ? यदि देखना ही है, तो प्रसंगानुसार उसके साथ गुस्सा करना, हंसना, रोना, प्रंशसा करना, गाली देना आदि कहाँ तक आवश्यक है ?
चल-चित्र (सिनेमा), सर्कस, टी.वी. आदि समूह में भी देखा जाता है। सैकड़ों, हजारों, लाखों लोग इन्हें एक साथ देखते हैं । उसमें मनुष्य, अथवा पशुओं को मारने की, दुःख देने की प्रवृत्ति हो रही है और उसे देखकर लोग खुश हो रहें हैं, एक साथ खुश हो रहें हैं, जिससे सामुदायिक कर्मबन्ध हो जाता है, जिसके फलस्वरूप बम विस्फोट, वाहन – दुर्घटना, भूकंप, बाढ़ या अग्नि का उपद्रव, झंझावात, चक्रवात, सुनामी आदि से हजारों, लाखों लोग प्रभावित होते हैं और बड़ी संख्या में एक साथ मारे जाते हैं। इसी कारण मनोरंजन के इन साधनों को सामूहिक रूप से देखने का निषेध किया है और अनर्थदण्ड विरमण - व्रतधारणा करने के लिए कहा गया है।
किसी के गृह-प्रवेश में जाना आवश्यक हुआ, पर वहाँ जाकर, घर बहुत अच्छा बनाया, चित्रकारी बहुत बढ़िया है, खूब अच्छा सजाया है, रंग का समायोजन बहुत ही पसन्द आया आदि निरर्थक प्रशंसा करना अनर्थदण्ड है। गृह प्रवेश में जाना आवश्यक था, पर निरर्थक प्रशंसा कहाँ आवश्यक थी ?
किसी घर में विवाह के प्रसंग पर गए । सजा हुआ सामान देखा, तो प्रशंसा
के
पुल बांधने लगे- वाह ! ससुराल वालों ने कितना धन दिया है, बहुत ही अच्छे आभूषण दिए हैं, साड़ियाँ कितनी अच्छी है, वेश बहुत बढ़िया है, मेवा-मिठाई की कितनी सुन्दर पैकिंग है, टी.वी. - सेट, डिनर सेट, वीडियो - सेट, सोफासेट आदि कितने महंगे व आकर्षक हैं। इतनी प्रशंसा करने पर आपको ऐसा लगता है, मानो सबकुछ आपको मिल जाएगा, सामने वाला आपको कह देगा कि ये सब चीज आपको अच्छी लग रही हैं, तो
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