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तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार आवश्यकता से अधिक वस्त्र, आभूषण, तेल, चन्दन आदि रखना उपभोग-परिभोगातिरेक है।
डा. सागरमल जैन के अनुसार आवश्यकता से अधिक उपभोग की सामग्री का संचय करना उपभोग-परिभोगातिरेक है।
तत्त्वज्ञान-प्रवेशिका के अनुसार आवश्यकता से अधिक भोग-उपभोग की सामग्री का संग्रह करना उपभोग-परिभोग का अतिक्रमण है।
अनर्थदण्ड-विरमणव्रत के विषय में तथा उनमें लगने वाले अतिचारों के विषय में अध्ययन करने पर स्पष्ट रूप से यह दृष्टिगोचर होता है कि अनावश्यक प्रवृत्तियाँ प्रतिदिन हमारी दैनिक-चर्या का अंग बनती जाती हैं, फलतः परिमाण अधिक बन्धन है। प्रयोजन से किया गया कार्य अल्प बन्ध का कारण है और वह अल्प बन्ध प्रायश्चित्त की प्रक्रिया से टूटने की संभावना पूरी रहती है, परन्तु निष्प्रयोजन से किया गया कार्य (चाहे वह मन से हो, वचन से हो, अथवा कर्म से हो) अधिक बन्धन व तीव्र बन्धन का भी कारण है।
___ आवश्यक कार्य के साथ भी अनावश्यक कार्य चलता ही रहता है, जैसेभोजन करना आवश्यक कार्य है, लेकिन बहुत से मुनि स्वाद लेकर खाते हैं, तो यह उनके लिए अनावश्यक कार्य हो गया। स्नान आपके लिए जरूरी है, पर स्नान करके ताजगी का, ठण्डक का, गरमाहट का अनुभव कर खुश होना- यह आवश्यक के साथ अनावश्यक बन्धन है, अत: संसार में जो कुछ कार्य करें, उसे शरीर का, परिवार का, समाज का निर्वाह समझकर ही करें, जिससे अनर्थदण्ड से बचकर आत्म-गुणों का प्रकटीकरण कर निर्वाण को प्राप्त करने में सफल बना जा सके। अनर्थ से बचें- अर्थदण्ड एवं अनर्थदण्ड- दोनों को समझ लेना आवश्यक है। आवश्यक कार्य अर्थदण्ड है और अनावश्यक कार्य अनर्थदण्ड । हांलाकि दोनों दण्डपाप की श्रेणी में है, पर श्रावक दोनों से मुक्त होकर जीवन-यापन नहीं कर सकता है, अतः उसके लिए अर्थदण्ड आवश्यक हो गया, अनर्थदण्ड आवश्यक नहीं है, लेकिन व्यक्ति
तत्त्वार्थ-सूत्र – आ. उमास्वाति-1/27 – पृ. - 189 'डा. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ - डा. सागरमल जैन - पृ. - 332 तत्त्वज्ञान-प्रवेशिक - प्र. सज्जनश्री - भाग-3 - पृ. - 23
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