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है, वह अनर्थदण्ड है। योगशास्त्र में शरीर आदि के निमित्त होने वाली हिंसा अर्थदण्ड है और निष्प्रयोजन की जाने वाली हिंसा अनर्थदण्ड है।
अनर्थदण्डविरमण-व्रत-अतिचार- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में अनर्थदण्डविरमण-व्रत की चर्चा करते हुए व्रत में लगने वाले अतिचारों का भी वर्णन किया है
"कंदप्पं कुक्कुइयं मोहरियं संजुयाहिगरणं च ।
उवभोग परिभोगा इरेगयं चेत्थ वज्जेई ।। पांच अतिचार इस प्रकार हैं- 1. कन्दर्प 2. कौत्कुच्य 3. मौखर्य 4. संयुक्ताधिकरण 5. उपभोग-परिभोगातिरेक।
उपासकदशांगटीका में पंचाशक-प्रकरण के अनुसार ही अतिचारों का उल्लेख है। योगशास्त्र, श्रावकप्रज्ञप्ति में भी यह पंचाशक के अनुरूप ही है। चारित्रसार एवं सागार-धर्माऽमृत में पूर्व के तीन नाम ज्यों के त्यों हैं, पर संयुक्ताधिकरण को असमीक्षाधिकरण एवं उपभोग-परिभोगातिरेक को सेन्यार्थाधिकता नाम दिया है। तत्त्वाथ-सूत्र में निम्न अतिचार बताए हैं- कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगाधिक्य, जो पंचाशक से कुछ भिन्न हैं।
7 उपाकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि - पृ. - 37 8 योगशास्त्र - आ. हेमचन्द्राचार्य- 3/74
पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-1/24 - पृ. - 10 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि-1/52 - पृ. -49 (क) योगशास्त्र - आ. हेमचन्द्राचार्य-3/114 (ख) श्रावक प्रज्ञप्ति - आ. हरिभद्रसूरि - गाथा- 291 - प्र. - 175 —(क) चारित्रसार – चामुण्डाचार्य - पृ. - 244 (ख) सागार धर्माऽमृत - पं. आ धर-5/12
तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-1/27 - पृ. - 189
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