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खेती, पशु-पालन, वाणिज्य एवं आरम्भ कार्यों का उपदेश तथा पुरुष-स्त्री के संयोगरूप विवाह आदि कराने सम्बन्धी कथन को पापोपदेश कहा गया है। श्रावकप्रज्ञप्तिटीका में पापोत्पादक कार्य, तिर्यंच को कष्ट पहुँचाना, कृषि, वाणिज्य में भाग लेना एवं निरर्थक उपदेश देना पापोपदेश है।
रत्नकरण्डक-श्रावकाचार में तिर्यंचों को क्लेश पहुँचाना, तिर्यंचों का व्यापार करना और आरम्भहिंसा से दूसरों को छलने की क्रियाओं को पापोपदेश कहा है।' सागारधर्माऽमृत में योगशास्त्र के अनुसार ही वर्णन किया गया है।'
तत्त्वज्ञान-प्रवेशिका के अनुसार पापकर्म या दुर्व्यसन की ओर प्रवृत्त करने वाला वचन कहना, सलाह देना, अथवा प्रेरणा देना पापोपदेश है।' अनर्थदण्ड- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में अनर्थदण्ड की परिभाषा करते हुए कहा है
दण्ड, अर्थात् जिस पाप-कर्म से आत्मा दण्डित होती हो, वह दण्ड कहलाता है। दण्ड दो प्रकार का होता है
1. अर्थदण्ड और 2. अनर्थदण्ड। 1.अर्थदण्ड- आजीविका-अर्जन आदि के लिए जो पाप-क्रिया की जाए, वह अर्थदण्ड है। 2.अनर्थदण्ड- अकारण ही कोई पाप-कार्य किया जाए, तो वह अनर्थदण्ड है। अपध्यान आदि पापों की आजीविका-अर्जन आदि में आवश्यकता नहीं होती, इसलिए ये अपध्यान आदि अनर्थदण्ड हैं।
____उपासकदशांग टीका में अभयदेवसूरि ने कहा है- आवश्यकता या प्रयोजन से जो हिंसा की जाती है, वह अर्थदण्ड और बिना किसी उद्देश्य के जो हिंसा की जाती
। योगशास्त्र - आ. हेमचन्द्राचार्य- 3/76 - श्रावकप्रज्ञप्तिटीका - आ. हरिभद्रसूरि - गाथा- 290 - पृ. - 174
रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र-76- पृ. - 126 +सागार-धर्माऽमृत - पं. आशाधर- 5/7
तत्वज्ञान-प्रवेशिका - प्र. सज्जनश्री - भाग-3-पृ. -23 'पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/23 - पृ. - 10
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