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सभी आचार्यों ने एवं मनीषियों ने इन सबके त्याग का उपदेश दिया है, जिसे हम विस्तार से स्पश्ट करने का प्रयास करेंगे
अपध्यान – अपध्यान का अर्थ है- अशुभध्यान । अशुभध्यान भी एक प्रकार से हिंसा है, जो आत्म के गुणों का घात करता है। अशुभध्यान दो प्रकार का है- 1. आर्तध्यान 2. रौद्रध्यान, पर पदार्थों का चिंतन करते हुए इष्ट के वियोग में या अनिष्ट के संयोग में दुःख मानना आर्त्तध्यान है। इसी प्रकार, इन निमित्तों के आधार पर दुःख, शोक, रुदन करना आर्तध्यान है। क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों से रंजित जीव के क्रूर भाव रौद्रध्यान हैं, साथ ही इनसे सम्बन्धित तथा इनसे प्रेरित होने वाली चित्त की वृत्ति को भी रौद्रध्यान कहते हैं। इन दोनों से होने वाला दुःचिन्तन अपध्यान है। पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने यह निर्देश दिया है कि आजीविका-अर्जन या जीवन-निर्वाह में इनकी आवश्यकता नहीं होती है, अतः अपध्यान अनर्थदण्ड है।'
उपासकदशांगटीका के अनुसार गृहस्थ अपने खेत, घर, धन-धान्य आदि की रक्षा करता है। उन प्रवृत्तियों के आरम्भ के द्वारा जो उपमर्दन होता है, वह अर्थदण्ड है। अर्थदण्ड के विपरीत निष्प्रयोजन प्राणियों के विघात को अनर्थदण्ड माना है।' प्रमादाचरण- अपने कर्त्तव्य या अपने द्वारा की जाने वाली क्रिया के प्रति जागरुक नहीं होना प्रमादाचरण है। इसका अर्थ है- प्रमत्त या असावधान होकर कार्य करना।' उपाकदशांगटीका के अनुसार अपने दायित्व एवं कर्त्तव्य के प्रति अजागरूकता प्रमाद है। श्रावकप्रज्ञप्ति में आचार्य हरिभद्र ने मद्यादिजनित प्रमाद के वश होकर प्राणियों को जो पीड़ा पहुँचाई जाती है, उसे प्रमादाचरित माना है। योगशास्त्र में गीत, नृत्य, नाटक आदि देखना, काम-क्रीड़ा में आसक्ति, जुआ एवं मद्य का सेवन, जल-क्रीड़ा, पशुओं को
(ग) सागार धर्माऽमृत - पं. आ जाधर- 5/6 'पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-पृ. - 10 2 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/43 3 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - पृ. - 10 4 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/43 - पृ. - 37
श्रावकप्रज्ञप्तिटीका - आ. हरिभद्र - गाथा-289 - पृ. - 173 6 योगशास्त्र - आ. हेमचन्द्राचार्य- 3/78-79-80 तत्वज्ञान-प्रवेशिका - प्र. सज्जनश्री - भाग-3 - पृ. - 23
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