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लिए भोगोपभोगव्रत कहा है। आचार्य वसुनन्दी ने अपने श्रावकाचार में भोग एवं परिभोग को अलग-अलग करके दो अलग-अलग व्रत माने हैं । यहाँ शारीरिक श्रृंगार, ताम्बूल, गंध एवं पुष्पादि का जो परिमाण दिया जाता है, उसे भोग - विरति एवं अपनी शक्ति के अनुसार स्त्री - सेवन एवं वस्त्राभूषण का जो परिमाण किया जाता है उसे परिभोग विरति नामक व्रत माना है । '
सर्वार्थसिद्धि में उपभोग - परिभोग के तीन प्रकार बताए गए हैं- 1. 1. दिन-रात, पक्ष, मास, दो मास, छः मास और एक वर्श आदि ।
2. भोजन, वाहन, शयन, स्नान, केसर आदि विलेपन ।
3. पुष्प, वस्त्र, आभूषण, काम से वन, गीत - श्रवण आदि ।
पंच - प्रतिक्रमणसूत्र में पाक्षिक अतिचार में सातवें व्रत में चौदह प्रकार के भेद बताए हैं।
उपभोग-परिभोग वस्तुओं का परिमाण- पंचाशक - प्रकरण में आचार्य हरिभद्र द्वारा सातवें गुणव्रत की चर्चा से यह ज्ञात होता है कि व्यक्ति को भोग - उपभोग की वस्तुओं का परिमाण कर ही लेना चाहिए । विश्व में भोग्य व अभोग्य वस्तुओं की भरमार है, जिनका मनुष्य भोग-उपभोग नहीं कर सकता, अतः परिमाण कर लेने पर असंख्य पदार्थो से विरति हो जाती है । जहाँ वस्तुओं से विरक्ति हुई, वहाँ संसार की रति- आसक्ति कम हो जाती है तथा संसार की रति कम होते ही वस्तुओं की आवश्यकता मर्यादित हो जाती है और मन तनावमुक्त हो जाता है। तनाव से मुक्त मानव ही व्रत की उपयोगिता को सिद्ध कर सिद्धत्व को प्राप्त करने में अग्रसर हो सकता है, अतः आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में पांच अतिचारों का वर्णन करने के पूर्व अनन्तकाय आदि के भक्षण के त्याग का निर्देश दिया है।' अनन्तकाय आदि क्या है ? इन्हें समझकर छोड़ने का संकल्प इस प्रकार से करें
3 रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र - 4/82 - पृ. 137
4 वसुनन्दी - श्रावकाचार - आ. वसुनन्दी - 2/7/218
' सर्वार्थसिद्धि - आ. पूज्यपाद - 7/21
• पंच प्रतिक्रमण सूत्र - पाक्षिक अतिचार
' पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/21 - पृ. - 9
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