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उपभोग एवं परिभोग की परिभाषा पंचाशक के अनुसार ही है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में पांच इन्द्रियों के विषयभूत भोजन, वस्त्रादि एक बार भोगकर छोड़ दिए जाएँ, तो उसे भोग तथा एक बार भोग कर भी पुनः भोगे जाएँ, उसे उपभोग कहा है। श्वेताम्बर-ग्रन्थों में प्रायः सातवें व्रत को उपभोग-परिभोग -परिमाणव्रत कहा गया है। दिगम्बर-ग्रन्थों में प्रायः सातवें व्रत को “भोगोपभोगपरिमाण-व्रत” कहा है। वैसे नाम में भेद है, परन्तु अर्थ में नहीं। दिगम्बर-ग्रन्थों में एक बार भोगे जाने वाले पदार्थ को 'भोग' एवं बार-बार उपयोग में आने वाले पदार्थों को 'उपभोग' कहा है।
पंचाशक-प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने अनन्तकाय उदुम्बर (उदुम्बर, वट, प्लक्ष, उम्बर और पीपल) और अत्यंग-अतिशायी भोजन, जैसे- मद्य, मांस, मक्खन, आदि का त्याग करना, शेश भोज्य-पदार्थों की मर्यादा करना, भोजन-सम्बन्धी उपभोग-परिभोग-परिमाण कहा है और हिंसक कार्यों से आजीविका अर्जन के उपायों के त्यागकर्म-सम्बन्धी उपभोग-परिभोग-परिमाण में यह निर्देश दिया है कि यह श्रावक के अणुव्रतों के पालन में विशेष सहयोगी है। उपभोग-परिभोग की वस्तुओं के ग्रहण को सीमित करना ही 'उपभोग-परिभोग -परिमाणव्रत है। इसमें भोग-उपभोग की वस्तुओं का परिमाण किया जाता है।'
उपासकदशांगटीका में उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत में इक्कीस वस्तुओं की मर्यादा की है। श्रावकप्रतिक्रमण-सूत्र में छब्बीस प्रकार की वस्तुओं की मर्यादा की है, इक्कीस तो उपासकदशांगटीका में वर्णित और वाहन, उपानह, शयन, सचित्त एवं द्रव्यविधि की भी मर्यादा का विधान है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार आदि ग्रन्थों में परिग्रह-परिमाणव्रत में दी हुई मर्यादा के भीतर राग और आसक्ति को कृश करने के
रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - आ. समन्तभद्र- 83 ' (क)उवासंगदसाओ - आ. अभयदेवसूरि-1/22/38
(ख) श्रावकप्रज्ञप्ति - आ. हरिभद्रसूरि-1/284 (क) रत्नकरण्डक-श्रावकाचार – आ. समन्तभद्र- 83 - पृ. - 137 (ख) अमितगति-श्रावकाचार - आ. अमितगति-6/93
। (क) पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/21 - पृ. -9
(ख) उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/51 - पृ. - 46 श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्र - अणुव्रत-7
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