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________________ प्रश्न-व्याकरण में कहा गया है- जगत् में अनेक व्रत हैं, परन्तु ब्रह्मचर्य अद्वितीय व्रत (गुण) है, जो सर्वगुणों का नायक है। ब्रह्मचर्य का अत्यन्त महत्व है। पाँच अणुव्रतों में ब्रह्मचर्य को छोड़कर अन्य चार में घोर उग्र शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है, परन्तु ब्रह्मचर्य के लिए घोर, उग्र, दुष्कर शब्द का प्रयोग हुआ है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि- ब्रह्मचर्य महाव्रत उग्र है। ब्रह्मचर्य महाव्रत घोर है। स्थूलभद्रसूरि कोशा वेश्या के यहाँ चातुर्मास सम्पन्न करके आए, तब आचार्य संभूतिसूरि ने दुष्कर-दुष्कर शब्दों के द्वारा उनका अभिनन्दन किया, क्योंकि सब पर विजय पाना सरल है, पर काम पर विजय पाना ही दुष्कर है। स्थूलभद्र कामविजेता कहलाए, जिनके लिए कथन है कि चौरासी चौबीसी तक उनका नाम स्मरण किया जाता रहेगा। ___ विजय सेठ-विजय सेठानी ब्रह्मचर्य के कारण ही स्तुति के पात्र बने और उनके लिए आचार्य ने जिनदास को कहा था कि वच्छदेश के विजय सेठ और विजय सेठानी को पारणे पर बुलाकर भोजन कराओ, तो चौरासी हजार साधुओं को सुपात्र-दान से बढ़कर लाभ है। ऐसे महापुरुषों के उदाहरणों से समझ में आता है कि ब्रह्मचर्य की महिमा कितनी है। इसी कारण आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रथम अध्याय में इस अणुव्रत के माध्यम से श्रावक की भूमिका कितनी स्वच्छ व निर्मल होना चाहिए, इसका ही प्रतिपादन किया है। अणुव्रती श्रावक को आचार्य हरिभद्र ने यही निर्देश दिया है कि वह अपने ब्रह्मचर्याणुव्रत को दूषित न करें और इन अतिचारों का सेवन न करें। परिग्रह-परिमाणव्रत - आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक की सत्रहवीं गाथा में श्रावक-धर्म की चर्चा करते हुए परिग्रह परिमाण-व्रत का प्रतिपादन किया है।' पंचाशक-प्रकरण के अनुसार इच्छा ही परिग्रह है, अतः आचार्य हरिभद्र ने श्रावकों को इच्छाओं का परित्राण करने का संकेत दिया है। परिग्रह का मूल कारण इच्छा है। यदि | पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/17 - पृ. - 7 256 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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