SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इच्छा ही समाप्त हो गई, तो आंतरिक-परिग्रह स्वतः समाप्त हो गया और आंतरिक-परिग्रह समाप्त हुआ, तो बाह्य परिग्रह समाप्त न होने पर भी समाप्त के समान ही है, क्योंकि उसके प्रति आसक्ति का अभाव होता है तथा संग्रह की वृत्ति भी प्रायः समाप्त हो जाती है। श्रावक सम्पूर्ण इच्छाओं से मुक्त होकर जीवन नहीं जी सकता है, अतः जीवन की आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक में श्रावकों के अणुव्रतों की चर्चा करते हुए परिग्रह-परिमाण-व्रत में इच्छा-परिमाण का निर्देश दिया है कि धन-धान्य क्षेत्रादि परिग्रह की सीमा का निर्धारण करना पांचवां इच्छा-परिणाम (स्थूल-परिग्रह-परिमाण) अणुव्रत है। (1) इच्छाओं से मुक्ति ही मोक्ष है। (2) इच्छाओं का बाहुल्य ही परिग्रह एवं संसार–परिभ्रमण का कारण है। (3) इच्छाओं का परिमाण करना शान्ति एवं तनावमुक्ति की कला है, क्योंकि इच्छा ही मूर्त है, आसक्ति है, ममत्व है और यह ही परिग्रह है। प्रश्न है- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में इच्छा का परिमाण करने की बात क्यों कही ? यहाँ वस्तु के परिमाण की बात कहना थी। वस्तु परिग्रह है, क्या इच्छा परिग्रह है ? इच्छा तो आती है और चली जाती है, वह रहती तो है नहीं, वस्तु या पदार्थ रहते हैं ? इसका उत्तर यह है कि आचार्य हरिभद्र दूरदर्शी थे, प्रज्ञाशील थे, इसी कारण उन्होंने इच्छा-परिमाणव्रत की चर्चा कि, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पदार्थ सीमित हैं और इच्छाएँ अनन्त हैं। भगवान् महावीर ने भी उत्तराध्ययन-सूत्र में कहा है कि- 'इच्छामो आगास समा अनन्तिया'- इच्छाएँ आकाश की तरह अनन्त हैं। भगवान् महावीर स्वामी ने आकाश के अनन्त को मिटाने की बात नहीं की, बल्कि अनन्त इच्छाओं को समेटने की बात की है, मूर्छा से मुक्त होने का उपदेश दिया है। इसी कारण, आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में इच्छाओं के परिमाण की बात की है। इच्छाओं का परिमाण कहने का यही लक्ष्य था कि यदि मूल समाप्त हो गया, तो शाखाएं, उपशाखाएं स्वतः समाप्त हो 257 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy