SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य हरिभद्र के पंचाशक - प्रकरण में प्रथम पंचाशक की आठवी गाथा के अनुसार अणुव्रतों में सर्वप्रथम स्थान अहिंसाणुव्रत का है। अहिंसा जैनधर्म और दर्शन का केन्द्रबिन्दु है। गृहस्थ श्रावक के लिए अणुव्रतों पालन की परम आवश्यकता है, इसलिए तीर्थंकर परमात्मा दो धर्म की स्थापना करते हैं- गृहस्थ-धर्म व साधु-धर्म, अथवा अणुव्रत और महाव्रत। प्रथम अणुव्रत में हिंसा के दो विभाग किए हैं 1. संकल्पज - हिंसा । 2. आरम्भिक - हिंसा । ' 1. संकल्पज - हिंसा - संकल्पपूर्वक जीवों की हिंसा करना संकल्पज - हिंसा है। 2. आरम्भिक हिंसा कार्य करते हुए जो सहज रूप से हिंसा हो जाए, अर्थात् जहाँ हिंसा करने के भाव नहीं हैं । सांसारिक क्रिया-कलाप करते हुए जो स्वतः हिंसा हो जाए, उसे आरम्भिक हिंसा कहते हैं । प्रथम अणुव्रत स्वीकार करने वाला श्रावक संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा का पूर्णतः त्याग करता है, परन्तु आरम्भिक - हिंसा से अपने-आपको नहीं बचा सकता, उसे मजबूरी में हिंसा करना ही पड़ती है। चूंकि वह गृहस्थ अवस्था में है, अतः पेट - पूर्ति के लिए भोजन आदि बनाने की तथा भोजन आदि के लिए खेती आदि करने की प्रवृत्ति का वह त्याग नहीं कर सकता हैं । - आचार्य हरिभद्र ने नौवीं गाथा में यह ज्ञात करवाया है कि किस प्रकार गुरु के मुखारविन्द से धर्म-श्रवण कर मोक्ष की अभिलाषा से व्रत ग्रहण किया हो, फिर चाहे कुछ समय के लिए ही किया हो, अथवा जीवन - पर्यन्त के लिए किया हो। साथ ही, प्राणातिपात का त्याग करने पर व्रत को मलिन करने वाले अतिचारों से बचने की आवश्यकता बताई गई है। इसके पश्चात् अतिचारों से बचने की विधि बताई है। पंचाशक- प्रकरण के प्रथम पंचाशक की दसवीं गाथा में पहले अणुव्रत के पाँच अतिचारों का विवरण किया है ' पंचाक - प्रकरण - • आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/8 - पृ. - 3 2 पंचाशक - प्रकरण – आचार्य हरिभद्रसूरि - 1 / 9 - पृ. - 3 Jain Education International For Personal & Private Use Only 230 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy