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________________ 1. बन्ध। 2. वध। 3. छविच्छेद। 4. अतिभार। 5. अन्नपान-निरोध।' 1. बन्ध- बन्ध का अर्थ है- किसी भी जीव को कठोर बन्धन में बांधना, अर्थात् क्रोध, मोह आदि के वशीभूत होकर पशु , मनुष्य आदि को निष्प्रयोजन बंधन में बान्धना। किसी की विचरण-स्वतन्त्रता को समाप्त करना अहिंसा-अणुव्रत अतिचार है। किसी प्रयोजन से पशु, अथवा मनुष्य को यदि मजबूत बान्धना पड़े, तो करुणाभाव से बांधे, द्वेषभाव से नहीं, अर्थात् यदि किसी को बांधना पड़े, तो ऐसे बांधा जाए कि वहाँ कोई भी दुर्घटना न हो जाए, तो वहाँ से वे बन्धन खोलकर अन्यत्र जा सकें। पहली बात तो यह है कि किसी को नहीं बांधना चाहिए। यदि किसी को बांधना ही पड़े, तो निर्दयतापूर्वक नहीं बांधे । महापुरुषों का कथन है कि घर में ऐसे पशु आदि नहीं रखें, जिन्हें बान्धना पड़े। बिना बन्धन के ही उन्हें प्रेम से रखें, उनकी विचरण की सुविधा का अपहरण न करें। 2. वध-अतिचार- पंचाशक-प्रकरण के अनुसार क्रोध, मोह आदि के वशीभूत होकर किसी भी मनुष्य, अथवा पशु आदि को मारना वध-अतिचार है।' उपासकदशांगटीका के अनुसार ऐसा घातक प्रहार करना, जिससे प्राणी-अंगोपांग का छेदन हो, उसे वध अतिचार कहते हैं। चारित्रसार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि में किसी भी पुरुष या पशु को लकड़ी, बेंत, थप्पड़, चूंसा, अंकुश आदि से मारने को भी वध-अतिचार कहा है। 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/10 - पृ. -4 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/10 - पृ. -4 3 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि - 1/45 – पृ. - 40 4 (क) चारित्रसार श्रावकाचार संग्रह - चामुण्डाचार्य - भाग-1 - पृ. - 339 (ख) पुरुषार्थ सिद्धयुपाय – अमृतचन्द्राचार्य – गाथा- 183 – पृ. - 340 तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति -1/20 - पृ. - 187 'डॉ.सागरमल जैन अभिनन्दनग्रन्थ - डॉ. सागरमल 2 चैत्यवन्दनकुलक-टीका - श्रीजिनकुशलसूरि – पृ. - 161 जैन - पृ.- 330 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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