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जिनयात्रा-महोत्सव मे नृत्य-नाटिका आदि का भी विधान है, साथ ही यह भी निर्देश है कि नृत्य-नाटिकाएँ, जम्बूकुमार, इलायचीकुमार, सुदर्शन सेठ, स्थूलभद्र आदि महापुरुषों के जीवन-चरित्र पर आधारित होने चाहिए, क्योंकि ऐसे नाटक वैराग्य-रस में डुबो देते हैं। जैनधर्म में ऐसे नाटकों का विधान नहीं है, जो जीव को वासना से भर दे और संसार-सागर में डुबोएं। नाटक ऐसे होना चाहिए, जो संयम के मार्ग में, त्याग के मार्ग में, वैराग्य के मार्ग में प्रवृत्त करें, असार संसार का अहसास करवा दे। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र यात्राविधि-पंचाशक की ग्यारहवीं गाथा में कहते हैं
जिनयात्रा में जिन-महोत्सव में भरत-दीक्षा आदि वृत्तान्त वाले धार्मिक नाटक आदि दृश्य भी उचित हैं, क्योंकि वे भव्य श्रोताओं में संवेग उत्पन्न करते हैं। नाटकादि दृश्यमहोत्सव के प्रारम्भ, मध्य और अन्त में करना चाहिए। दान कब देना चाहिए- इस विधि का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने यात्राविधि-पंचाशक की बारहवीं गाथा में किया है
दीन आदि गरीबों के मनस्तोष के लिए महोत्सव के प्रारम्भ में ही अनुकम्पा-दान करना चाहिए। सिद्धान्त के ज्ञाता-गुरु को अपनी शक्ति के अनुसार राजा को उपदेश देकर हिंसा से आजीविका चलाने वाले मछुआरों आदि की आजीविका की व्यवस्था करवाकर उनसे होने वाली हिंसा को रुकवाना चाहिए तथा राजा से कर आदि माफ करवाना चाहिए।
जिनयात्रा–महोत्सव में साधुओं का आगमन प्रायः होता ही है। जिनाज्ञा है कि साधु जिस क्षेत्र में रहें, उस प्रदेश के राजा अथवा नगर-सेठ आदि की आज्ञा लेकर ही उन्हें वहां रहना चाहिए। साधुओं द्वारा राजा को यह बताना चाहिए कि उनका साध्वाचार है कि वे जिस प्रदेश में रहें, उस प्रदेश के राजा की आज्ञा प्राप्त करें तथा जिस वसति में रहें, वहां के स्वामी की आज्ञा प्राप्त करें। कई लोग प्रश्न करते हैं कि राजा की आज्ञा लेने की क्या आवश्यकता है ? संघ के अग्रगण्य की आज्ञा होना चाहिए।
2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/11 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/12 - पृ. - 151
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