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________________ मंगल गाथाएँ बोलना चाहिए । प्रतिष्ठा के समय ऐसे मंगल वचन कल्याणकारी बनते हैं ऐसा शास्त्रज्ञों द्वारा कहा गया है। जिस प्रकार शकुन - शास्त्र के अनुसार विजय आदि मांगलिक शब्द सुनने से इष्टसिद्धि होती है, उसी प्रकार प्रतिष्ठा में भी मंगलवचनों से इष्टसिद्धि होती है- यह बात विद्वानों को जानना चाहिए । मंगल वचन बोलने में मतान्तर - आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की सैंतीसवीं गाथा अन्यों के मत को प्रकट करते हुए कहते हैं कि कई आचार्यों का कथन है कि पूर्ण कलश, मंगलदीप आदि रखते समय समुद्र, अग्नि आदि शुभ शब्द बोलना चाहिए । कुछ आचार्यों का मत है कि परमार्थ से जिनेन्द्रदेव ही मंगलरूप है, इसलिए प्रत्येक कार्य करने से पूर्व भावपूर्वक जिनेन्द्रदेव के नामों का ही उच्चारण करना चाहिए। दूसरा मत अधिक उचित है, क्योंकि यह निश्चित है। अनन्त प्रकृष्ट धारक तीर्थंकर होते हैं, अतः उनका नाम ही मंगल का प्रतीक है। यदि प्रभु का नाम ही हमारे लिए मंगलकारक बन सकता है, तो अन्य नाम की ओर आकर्षित पुण्य-प्रकृति क्यों होना चाहिए ? प्रतिष्ठा के पश्चात् गृहस्थ के लिए अन्य संघपूजा और संघ की महत्ता महत्वपूर्ण कर्त्तव्य यह दर्शाया गया है कि वह संघ - पूजा करे । संघ शब्द का अर्थ हैसाधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका । ये चारों मिलकर ही संघ होता है, इनमें से एक के बिना भी संघ अपूर्ण है । जिस प्रकार चार पायों से ही खाट (पलंग) पूर्ण होती है, एक भी पाया कम हो, तो वह किसी काम की नहीं होती है, इसी प्रकार ये चारों अंग पूरे होने पर ही संघ बनता है। यह संघ चतुर्विध - संघ कहलाता है । इतना अवश्य है कि संघ के इन चारों अंगों में से किसी एक की भी पूजा करने पर भी यह सम्पूर्ण संघ की पूजा कहलाएगी, क्योंकि भाव संघ - पूजा के हैं। संघ की महिमा इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि संघ को तो तीर्थंकर भी नमस्कार करते हैं । आगमों के आधार पर कल्पसूत्र में वर्णन आता है कि तीर्थंकर को केवलज्ञान होने पर सर्वप्रथम समवसरण में देशना प्रारम्भ - 2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/37- पृ. - 143 Jain Education International — For Personal & Private Use Only 205 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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