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________________ करने के पूर्व तीर्थकर परमात्माओं णमो तित्थस्स कहकर संघ को नमस्कार करते हैं। संघ-पूजा से विश्व का कोई पूज्य, पूजा से शेष नहीं रहता है, सबकी पूजा हो जाती है, क्योंकि संघ में सभी आ जाते हैं। संघ-पूजा करने वाला निकट में मोक्षगामी होता है, क्योंकि संघ के प्रति बहुमान होने से द्वेष की भावना समाप्त हो जाती है, अहम् का विसर्जन हो जाता है। जिसमें अहम् होगा, वह किसी का भी बहुमान नहीं कर सकेगा, किसी की भी पूजा नहीं कर पाएगा और यह अहम् मोक्ष को कैसे प्राप्त करवाएगा ? अतः, संघपूजा मोक्ष का फल ही देने वाली है, यह सत्य है। संघ-पूजा करने वाला जीव जब तक मोक्ष नहीं पाएगा, तब तक पुण्यरूप मनुष्य एवं देव भव प्राप्त करता रहेगा। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की अड़तीसवीं से लेकर पैंतालीसवीं तक की गाथाओं में संघ-पूजा के महत्व की चर्चा की है प्रतिष्ठा हो जाने के बाद यथाशक्ति श्रमण-प्रधान चतुर्विध-संघ की पूजा करना चाहिए, क्योंकि संघ के एक भागरूप धर्माचार्य आदि की पूजा से संघ-पूजा अधिक फल वाली है। इसका कारण यह है कि शास्त्र में कहा गया है कि तीर्थंकर के बाद पूज्य के रूप में संघ का स्थान है, उसके पश्चात् धर्माचार्यों का स्थान आता है। तीर्थंकर बनने में संघ हेतु होता है, इसलिए धर्माचार्य की पूजा से भी अधिक महत्व संघपूजा का है। अनेक जीवों के ज्ञानादि गुणों का समूह ही संघ कहलाता है। यहाँ प्रवचन और तीर्थ- ये दोनों शब्द एकार्थवाची हैं, जिनका अर्थ होता है- संघ। सद्य स्त्री, पुरुष आदि बाह्य समूहरूप संघ नहीं है, अपितु गुण-समुदायरूप संघ है, इसलिए तीर्थकर भी देशना के पहले गुरुभाव से संघ को नमस्कार करते हैं। विशेष- प्रवचन शब्द प्रकृष्ट वचनरूप द्वादशांगी के लिए प्रयुक्त किया जाता है और द्वादशांगी, जिससे जीव भवरूप समुद्र को पार करता है, वह भी तीर्थ कहलाती है। इस प्रकार तीर्थ शब्द का अर्थ द्वादशांगी भी होता है। द्वादशांगी का आधार संघ है। संघ के बिना द्वादशांगी नहीं रह सकती, इसलिए द्वादशांगी आधेय और संघ आधार है। आधार और आधेय के अभेद की विवक्षा से प्रवचन और धर्म-तीर्थ को भी संघ कहा जाता है। 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/38 से 45 – पृ. – 143 से 145 206 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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