________________
कायोत्सर्ग करना चाहिए, फिर परमात्मा के गुणों का स्मरण करते हुए मंगलोच्चारणपूर्वक जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करना चाहिए। प्रतिष्ठा के बाद की विधि
परमात्मा की स्थापना (प्रतिष्ठा) के बाद प्रथम बार अष्ट- प्रकारी पूजा करना चाहिए। अष्टप्रकारी पूजा अष्टकर्मों का उच्छेद करने में हेतुभूत है। अष्ट-प्रकारी पूजा से अष्ट-सिद्धियों की भी प्राप्ति होती है। अष्ट-प्रकारी पूजा करते हुए भव्यजीव भावना करता है कि प्रस्तुत पूजा से उसके कर्ममल दूर हो, कषायरूपी ताप शान्त हो, उसका क्रूर स्वभाव मधुर स्वभाव बने, वह चारों ओर अपने यश की मधुर सुगन्ध फैलाकर, ऊर्ध्वारोहण करने के लिए, अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर तथा ज्ञान का प्रकाश पाकर, अक्षय सुख को पाने के लिए अणाहारी पद को प्राप्त करे या मोक्ष का फल प्राप्त करे। इन शुभ भावनाओं के प्रभाव से जीव कर्म की जंजीर को तोड़ता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है, अतः भावपूर्वक चैत्यवन्दन में स्थित होकर आशीर्वादरूप मंगल ऐसी प्रार्थना करना चाहिए। ये मंगल वचन इष्ट सिद्धि के हेतु बनते हैं। आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की तैंतीसवीं से छत्तीसवीं तक की गाथाओं में प्रस्तुत विषय का वर्णन करते हुए कहते हैं
प्रतिष्ठित जिनबिम्ब की पुष्पादि से पूजा करना चाहिए, फिर चैत्यवन्दन करना चाहिए, फिर उपसर्गों की शान्ति के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग करने के पश्चात् चित्त की स्थिरता करना चाहिए, अर्थात् एकाग्रचित्त होना चाहिए। आशीर्वाद के लिए सिद्धों की पर्वत, द्वीप, समुद्र आदि की उपमा वाली मंगलगाथाएँ बोलना चाहिए।
जिस प्रकार त्रिभुवन चूड़ामणिरूप सिद्धालय में सिद्ध भगवंतों की प्रतिष्ठा है तथा जैसे चन्द्र और सूर्य शाश्वत् हैं, उसी प्रकार यह प्रतिष्ठा भी शाश्वत् बनें।
जिस प्रकार सिद्धों की उपमा से मंगल गाथा कही गई , उसी प्रकार मेरुपर्वत, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि शाश्वत पदार्थों की उपमा से भी आशीर्वाद की
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/33 से 36 - पृ. - 141,142
204
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org