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________________ भावोल्लास से की गई पौंख-क्रिया एवं दान- दोनों ही अवश्य इसी भव में फल की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। उत्कृष्ट पूजा का विधान- स्थापना के समय भावोल्लास के साथ उत्कृष्ट प्रकार से पूजा करना चाहिए, क्योंकि उत्कृष्ट पूजा प्रकृष्ट पुण्य का अर्जन करती है। यह पुण्य कालान्तर में कर्म-निर्जरा का हेतु बनता है। आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की उन्तीसवीं एवं तीसवीं गाथाओं में उत्कृष्ट पूजा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अधिवासन के समय चन्दन, कपूर, पुष्प आदि उत्तम द्रव्यों से, अक्षत् वगैरह औषधियों से, नारियल आदि फलों से, सुवर्ण, मोती, रत्न-रत्नों से एवं विविध प्रकार के वस्त्रों के उपहारों से, कोष्ठ पुटपाक, अर्थात् इत्र आदि सुगन्धित द्रव्यों से, विविध प्रकार के पुश्पों एवं दूसरी वस्तुओं को सुगन्धित बनाने वाले विविध चूर्णों से और भक्तिभाव-युक्त उत्तम रचनाओं से जिनेन्द्रदेव के वैभव को प्रकट कर जिनबिम्ब की उत्कृष्ट पूजा करना चाहिए। प्रश्न उपस्थित होता है कि पूजा को इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया ? इसका उत्तर आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की इकतीसवीं गाथा में विशेष रूप से देते हैं कि प्रतिष्ठा के समय जिनबिम्ब की उत्कृष्ट पूजा का हेतु मूलमंगल है। इस मूलमंगल से ही प्रतिष्ठा होने के बाद प्रतिष्ठित जिनबिम्ब का सत्कार उत्तरोत्तर बढ़ता है। मूलमंगल उत्तरोत्तर सत्कारवृद्धि का कारण है, इसलिए बुद्धिमान् पुरुषों को इस मूलमंगल हेतु उद्यम करना चाहिए। उत्कृष्ट पूजा के बाद की विधि- उत्कृष्ट पूजा के पश्चात् भाव-पूजा का विधान है। इस विधान-विधि का वर्णन करते हुए आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की बत्तीसवीं गाथा में कहते हैं कि पूजा करने के पश्चात् चैत्यवन्दन करना चाहिए, फिर वर्द्धमान-स्तुति बोलना चाहिए, फिर शासनदेवी की आराधना के लिए एकाग्रचित्त होकर 4पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/29,30 - पृ. - 140 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/31 - पृ. - 141 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/32 - पृ. - 141 203 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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