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________________ बन पाएंगे, अतः ग्रन्थकार जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि की प्रथम गाथा में आराध्य के चरणों में झुकते हुए कहते हैं मैं इन्द्रादि द्वारा पूज्य देवाधिदेव भगवान् महावीर को प्रणाम करके आगम और लोक- इन दोनों नीतियों के अनुसार जिनबिम्ब प्रतिष्ठानविधि का सम्यक् एवं संक्षिप्त विवेचन करूंगा। यहाँ 'लोक' शब्द से यह सूचित किया गया है कि कभी जिनमत के अनुकूल लोक-परम्परा का भी अनुसरण होता है। उनके इस कथन से यह भी सिद्ध होता है कि जिनबिम्ब-प्रतिष्ठाविधि के इस विवेचन में उन्होनें लोक की परम्परा का अनुसरण किया है। जिनबिम्ब बनवाने सम्बन्धी विधि का निरूपण - जिनबिम्ब अन्यों से ही बनवाए जाते हैं, अतः उसकी भी विधि है। विधि के अनुसार बनने वाली प्रतिमा फलदायी होती है। कई लोगों का प्रश्न होता है कि कुछ प्रक्रियाएँ विधिपूर्वक करने पर भी फलदायी नहीं होती है। इसमें मुख्य कारण यह है कि हम बाह्य-विधि तो कर लेते हैं, इसमें भूल कम होती है, पर आन्तरिक भावों का संयोग नहीं जुड़ता है। इस कारण विधिपूर्वक की गई क्रिया से भी वैसा फल प्राप्त नहीं हो पाता, जो फल प्राप्त होना चाहिए। इसी कारण कहा गया है कि द्रव्य के साथ भावों को जोड़ने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। यही प्रयत्न फल देने वाला होता है। फल किसे नहीं चाहिए। बच्चे से लेकर बड़े तक फल की इच्छा करते हैं, परन्तु फल पाने का पुरुषार्थ तभी सफल होता है, जब क्रियाविधि को जिनाज्ञानुसार शुद्धता के साथ किया जाए। यही बात आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की दूसरी से सातवीं तक की गाथाओं में कहते हैं प्रायः दूसरों से बनवाए गए जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की जाती है, अतः मैं सर्वप्रथम जिनबिम्ब को बनवाने की विधि का वर्णन कर रहा हूँ 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/1 - पृ. - 132 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि -8/2 से 7 - पृ. - 13 से 133 195 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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