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करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि पंचाशक की सत्रहवीं से बीसवीं तक की गाथाओं में कहते हैं
जिनमन्दिर निर्माण के लिए काष्ठ, पत्थर आदि भी शुद्ध होना चाहिए। व्यन्तर अधिष्ठित जंगल अथवा घर इत्यादि में से लाया गया काष्ठादि अशुद्ध है, क्योंकि व्यन्तराधिष्ठित जंगल से काष्ठादि लाने से वह व्यन्तर क्रोधित होकर जिनमन्दिर को नुकसान पहुंचा सकता है। पशुओं को शारीरिक या मानसिक कष्ट देकर अनुचित रीति से लाया गया काष्ठादि अशुद्व है। इस हेतु हरा वृक्ष कटवाकर लाया गया काष्ठादि भी अशुद्ध है।
उस दल, अर्थात् काष्ठ आदि को खरीदने की बात चलती हो या उसको खरीदा जा रहा हो, तो उस समय होने वाले शकुन और अपशकुन से दल आदि की शुद्धि और अशुद्धि जानने के उपाय हैं, अर्थात् उस समय यदि शुभ शकुन हो, तो दल आदि शुद्ध हैं और यदि अपशकुन हो, तो उस दल-सामग्री को अशुद्ध समझना चाहिए।
नन्दी आदि बारह प्रकार के वाद्ययन्त्र, घण्टे आदि की शुभ ध्वनि, जल से भरे कलश, सुन्दर आकृति वाले पुरुष और मन आदि योगों की शुभ प्रवृत्ति शकुन है, अर्थात् इष्टकार्य की सिद्धि के सूचक हैं। आक्रन्दनयुक्त शब्द आदि अपशकुन हैं।
शुभ दिन में शुभ मुहूर्त में खरीदे गए दल को जहाँ खरीदा गया हो, वहाँ से दूसरी जगह ले जाने में भी शकुन और शुभ दिन इत्यादि का ध्यान रखना चाहिए। भृतकानतिसन्धान-द्वार - जिन-मन्दिर का निर्माता व्यवहारकुशल, उदार-हृदय, जिनधर्म के प्रचार की शुभ-भावना वाले जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त, जिन-मन्दिर का कार्य करने वाले मजदूरों के प्रति सहानुभूति रखनेवाला होना चाहिए, क्योंकि इन गुणों के प्रभाव से जैनेतर समाज में जैनधर्म की महती प्रभावना होती है और जिनधर्म की महती प्रभावना से अनेक जीव बोधि-बीज को प्राप्त करते हैं, जिसमें जैनधर्म की प्रशंसा एवं जय-जयकार होती है और लोग उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं तथा नतमस्तक होते
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/17 से 20 – पृ. - 121,122
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