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जिनालय के प्रति अप्रीति हो। इसी बात की पुष्टि करते हुए आचार्य हरिभद्र ने जिनभवन निर्माणविधि पंचाशक की चौदहवीं से सोलहवीं तक की गाथाओं में' भावशुद्धि पर भगवान् महावीर का दृष्टान्त देते हुए जिनभवन-निर्माता को अच्छी तरह से समझाया
___ जिनभवन निर्माण आदि के द्वारा कर्मक्षयरूप धर्म करने हेतु उद्यत व्यक्ति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे किसी को अप्रसन्नता हो, क्योंकि ऐसा करना धर्म के विरूद्ध है। किसी को अप्रीति नहीं हो, ऐसा कार्य करने से चारित्र भी प्रशंसनीय बनता है। इस विषय में भगवान् महावीर के जीवन का एक दृष्टान्त दृष्टव्य है
तापसों को मुझसे अप्रीति होती है और यह अप्रीति सम्यग्दर्शन के अभाव का महान् कारण है- ऐसा जानकर भगवान् महावीर तापस-आश्रम से चातुर्मासों में, अर्थात् वर्षाऋतु में ही चल दिए। चातुर्मास में साधुओं को विहार नहीं करना चाहिए, फिर भी वे अप्रीति को जानकर विहार कर गए।
भगवान् महावीर की तरह ही जिनभवन आदि निर्माण की इच्छा वाले व्यक्ति को तथा संयम स्वीकार करने की इच्छा वाले व्यक्ति को, लोगों को अप्रीति उत्पन्न हो, ऐसे कार्यों का यथाशक्य परिहार करना चाहिए। यदि लोगों में व्याप्त अज्ञानता आदि के कारण अप्रीति का त्याग न कर सके, तो स्वंय को वहाँ से दूर कर लेना चाहिए। दलविशुद्धि-द्वार- जिनमन्दिर-निर्माण हेतु काष्ठ आदि सम्पूर्ण सामग्री शुद्ध होना चाहिए। वस्तुओं की शुद्धि का भी अपना प्रभाव होता है। काष्ठ आदि यदि अशुद्ध आ गए हों, तो इसके निमित्त से उपद्रव आदि भी उपस्थित हो सकते हैं, अतः न तो अशुद्ध काष्ठ लाएँ, न चोरी का माल लाएँ, न अधिक मूल्य की भवन-सामग्री कम मूल्य देकर लाएँ, अर्थात् व्यापारी का शोषण करके भी किसी प्रकार की जिनमन्दिर निर्माण की सामग्री नहीं लाएं। यह भी कहा गया है कि किसी भी वस्तु को लाना हो, या इस विषय में बात करनी हो, तो शकुन-अपशकुन का भी ज्ञान होना चाहिए। इसी बात को पुष्ट
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/14 से 16 - पृ. - 120
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