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बनेगा। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि पंचाशक की ग्यारहवीं तथा बारहवीं गाथाओं में' कहते हैं
अयोग्य क्षेत्र में जिनमन्दिर निर्माण से भूमि एवं परिवेश की अशुद्धता से तथा असदाचारी लोगों के प्रभाव से उस जिन-मन्दिर की न तो वृद्धि होती है और न पूजा। धर्मभ्रंश के भय से दर्शनादि के लिए साधु भी वहाँ नहीं आते हैं। यदि साधु वहाँ आते भी हैं, तो उनके आचार का नाश होता है।
अयोग्य स्थान पर मन्दिर निर्माण से लोक में जैन-शासन की निन्दा होती है। वहाँ कुत्सित लोगों के आने-जाने से कलह होता है तथा आज्ञा-भंग, मिथ्यात्व और जिनाज्ञा-विराधना रूप भयंकर दोष लगते हैं, जो घोर संसार-बन्धन के कारण हैं। भूमि में कांटे होने से होने वाले दोष - भूमि लेने के पूर्व वहाँ शोध कर लेना चाहिए कि वहाँ पर किसी भी प्रकार की हड्डी, मांस आदि अशुद्ध वस्तुएँ आदि तो नहीं है, क्योंकि भूमि की अशुद्धि भी अशान्ति का हेतु बनती है। कई लोगों का प्रश्न रहता है कि भूमि-शुद्धि आदि की क्या आवश्यकता है ? मन शुद्ध होना चाहिए। मन की शुद्धि तो आवश्यक है ही, परन्तु भूमि-शुद्धि की क्या आवश्यकता है ? भूमि आदि की शुद्धि से शारीरिक, मानसिक और आर्थिक पक्ष पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। यदि भूमिशुद्धि नहीं हो, तो इसका बुरा प्रभाव शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है- यह अधिकांश लोगों की अनुभव-सिद्ध बात है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि पंचाशक की तेरहवीं गाथा में कहते हैं
___जिन-मन्दिर की भूमि में कांटे, हड्डियाँ आदि अशुभ वस्तुरूप शल्य होने से अशान्ति, धनहानि, असफलता आदि दोष होते हैं। इन दोषों को दूर करने के लिए शास्त्रोक्त विधि से प्रयत्न करना चाहिए। भूमि भाव से भी शुद्ध होना चाहिए - जिनभवन-निर्माता को जिनभवन निर्माण के द्वारा ऐसा कोई भी अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे अन्य को उसके प्रति अथवा
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-7/11 व 12 - पृ. - 119 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-7/13 - पृ. - 119
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